बिल्वा - एक शिव भक्त

सद्‌गुरु: लगभग चार सौ वर्ष पूर्व, मध्य प्रदेश के छोटे से गाँव में एक व्यक्ति रहता था। उसका नाम बिल्वा था। वह बहुत अलग तरह का जीवन जीता था। वह प्रचण्ड और तीव्र स्वभाव का आदमी था। वह समाज के नियमों की परवाह नहीं करता था। भारत में एक परंपरा चली आ रही है, जिसमें लोग सुबह-सुबह मार्गों से होते हुए निकलते थे, वे सुबह-सुबह घुप्प अंधेरे में अपने नगाड़े बजाते निकलते। वे नगाड़ों की ताल से लोगों को जगाते थे। सहज ज्ञान से, अगर उन्हें कुछ दिखाई देता तो वे बता देते, अन्यथा वे प्रभु का गुणगान करते हुए आगे बढ़ जाते। शैव संस्कृति में यह परंपरा विशेष रूप से चली आ रही है, जहाँ इस विशेष क़बीले के लोग, सँपेरे भी होते हैं।

बिल्वा एक ऐसा व्यक्ति था, जो सामाजिक ढाँचे में कभी फिट नहीं हुआ और उसे एक विद्रोही की तरह देखा जाता रहा। उसके अनेक विद्रोही कर्मों में से, एक यह भी था कि वह जाति प्रथा की क़द्र नहीं करता था। इस कारण बहुत कम आयु में ही उसे पेड़ से बांधकर, साँप से कटवाकर मृत्यु का दण्ड दिया गया।

बिल्वा अपने कबीले का सँपेरा था और उसे अपने काम से बहुत लगाव था। ये लोग जीवन को उसके असली रूप में जीते थे। उनके पास किसी वस्तु का संचय नहीं था। उनके पास कोई धन या संपत्ति आदि नहीं थी। वे सहज रूप से जीते थे, और उनके जीवन में शिव बहुत महत्वपूर्ण थे। बिल्वा को सर्पों से लगाव था। अगर आपको विषैले जीवों से लगाव रखना हो तो आपको बहुत अलग तरह का इंसान बनना होता है। किसी सर्प को चुंबन देने के लिए बहुत साहसी होना होगा। कोई ऐसा व्यक्ति, जिसके लिए प्रेम ही सब कुछ, बाकी सब कुछ गौण हो जाता है; जीवित रहना भी गौण हो जाता है। वह भी कुछ इसी तरह का व्यक्ति था। एक ऐसा व्यक्ति, जो सामाजिक ढाँचे में कभी फिट नहीं हुआ और उसे एक विद्रोही की तरह देखा जाता रहा। उसके अनेक विद्रोही कर्मों में से, एक यह भी था कि वह जाति प्रथा की क़द्र नहीं करता था। इस कारण बहुत कम आयु में ही उसे पेड़ से बांधकर, साँप से कटवाकर मृत्यु का दण्ड दिया गया।

सारे शरीर में जह़र फैल गया था और मृत्यु कुछ ही मिनटों की दूरी पर रह गई थी। वह उस समय अपने शरीर से जाती श्वास को देखने के सिवा कुछ नहीं कर सकता था। यह एक सजग व सचेतन घटना की बजाए एक संयोग था। यह एक साधना की बजाए एक अनुग्रह था। जब उसने अपनी श्वास पर ध्यान रमाया, जो केवल कुछ ही क्षणों के लिए शेष थी, तो एक नई आध्यात्मिक प्रक्रिया आरंभ हुई

वह शिव का परम भक्त था। हमारा मंत्र, ‘शंभो’ उसी युग से आया है। उस समय, आप उसे सही मायनों में कोई आध्यात्मिक साधक नहीं कह सकते थे; वह एक भक्ति था, परंतु सही मायनों में एक आध्यात्मिक साधक नहीं था। अपने जीवन के उन अंतिम क्षणों में, उसने अपनी श्वास पर ध्यान दिया। सर्प का विष हृदय तंत्र पर अपना प्रभाव दिखाता है। रक्त गाढा हो जाता है और हृदय व श्वसन तंत्र के लिए अपना काम करना कठिन होता जाता है और फिर वे काम करना बंद कर देते हैं। सारे शरीर में जह़र फैल गया था और मृत्यु कुछ ही मिनटों की दूरी पर रह गई थी। वह उस समय अपने शरीर से जाती श्वास को देखने के सिवा कुछ नहीं कर सकता था। यह एक सजग व सचेतन घटना की बजाए एक संयोग था। यह एक साधना की बजाए एक अनुग्रह था। जब उसने अपनी श्वास पर ध्यान रमाया, जो केवल कुछ ही क्षणों के लिए शेष थी, तो एक नई आध्यात्मिक प्रक्रिया आरंभ हुई, जिसने उस व्यक्ति के भविष्य को कई तरह से बदल दिया। वह अपने अगले जन्म में, परम प्रकृति का तीव्र साधक बना, शिव ही उसका जीवन हो गए।.