एक सहभागी के शब्दों में

भले ही मेरा मन कितना भी प्रयास क्यों न करे, यह अनादि को स्पर्श नहीं कर सकता। एक भी ऐसी मूर्त चीज़ नहीं, जिसे मैं बता सकूँ और कह दूँ, ”आह ...हाँ, वह अनादि था।“ वहाँ बहुत ही सुंदर और उल्लासमयी घटनाएँ घटीं; बुद्ध पूर्णिमा व गुरु पूर्णिमा के समारोह, दिन में होने वाले सद्‌गुरु के साथ लम्बे सत्संग, सद्‌गुरु के साथ रात्रि दर्शन - ऐसे अनेक आशीर्वाद मिले, जो हमारी सोच से परे हैं। परंतु यह सब मिला कर भी अनादि नहीं था। .

अभी तक मेरा रवैया यही था, ”ओह! सद्‌गुरु का रूप कितना रौद्र है,“ इसलिए मैं अपनी ओर से उस ‘बड़े विस्फोट’ की तैयारी कर रही थी और स्वयं को एक मजबूत योगी बनाने में जुटी थी - कैसी मूर्खता थी! अनादि के साथ मेरा अनुभव, किसी बड़े विस्फोट जैसा नहीं रहा! यह आनंद का कोई विस्फोट नहीं या अचानक ही मिलने वाला कोई विशाल बोध नहीं था। अनादि धीरे-धीरे जलता रहा और मैं निरंतर उच्चतम ऊर्जाओं के छोर पर रही – सद्‌गुरु ने हमसे ‘शीतल ज्वाला’ बनने को कहा था। शायद यही वह ‘शीतल ज्वाला’ थी

हमारे सत्र के अंतिम दिन, जब सद्‌गुरु वहाँ से गए तो मैंने उस देन की झलकी पाई, जो वे हमें दे गए थे। उस दिन हमें निर्देश दिए गए कि सारा दिन अपनी नई साधना का अभ्यास करना है। जब मैं संध्या समय कक्ष से बाहर आ रहा था, तो वहाँ कुछ प्रतिभागी थे, जो अब भी अपना अभ्यास पूरा कर रहे थे। जब मैं उनके पास से एक-एक कर गुज़री, तो मुझे कुछ अद्भुत नज़र आया। मैंने जिस भी सहभागी को देखा, उसके चेहरे पर एक बहुत ही परिष्कृत आभा दिखाई दी, एक भी चेहरा अपवाद नहीं था। ऐसा लगता था मानो उनके भीतर से कोई प्रकाश फूट रहा हो और नन्हे प्रकाश स्तंभों की तरह उनके आसपास बिखर गया हो। मैंने सोचा, ”हे ईश्वर! वे सब कैसे जगमगा रहे हैं!“

अब, कुछ सप्ताह बाद, मुझे एहसास हो रहा है कि भले ही अनादि कार्यक्रम समाप्त हो गया हो, लेकिन प्रक्रिया अब भी जारी है और मुझ पर इसका प्रभाव बढ़ता ही जा रहा है, मेरे लिए अब यही चीज़ ज़्यादा महत्व रखती है। सब कुछ कितना सरल हो गया है। मैं अपने भीतर और दूसरों के साथ अपने संबंधों में मुक्ति का एहसास कर रही हूँ।

अनादि मेरी बोल-चाल और मेरी हर गतिविधि में मेरे साथ है। मैं लोगों से जिस प्यार और मान से मिल रही हूँ, उसके भीतर अनादि की ही उपस्थिति है। मेरी सोच में अब पहले जैसा तनाव नहीं रहा। सब कुछ आनंदमयी हो गया है। मैं अक्सर बाथरूम में ही गाती थी, और दूसरे परेशान होते थे। पर अब तो मैं हर जगह गाने लगी हूँ...रसोई घर, कपड़े धोते वक़्त हर जगह। मेरे भीतर इतना संगीत भर गया है, जो कभी ख़त्म नहीं होता।

ऐसा लगता है कि मेरे भीतर उलझाने वाली पुरानी यादें, मोह और दूसरों को परखने का स्वभाव पूरी तरह से मिट गया है। अब तो जैसे कोई माँग या इच्छा ही नहीं रही। कोई भी इच्छा मन में आती है तो वह मोह का कारण नहीं बनती। मुझे अब कोई भय या घृणा नहीं सताते - ये भाव अब नहीं रहे। मैं न तो खुद को कुछ प्रमाणित करना चाहती हूँ और न ही यह इच्छा रह गई कि कोई मुझसे प्रभावित हो या मुझे अपनाएं। मैं एक ऐसी व्यक्ति बन गई हूँ जिसका समस्याओं से कोई लेन-देन नहीं रहा - हर चीज़, अगर ज़रूरी हो तो संभालने योग्य परिस्थिति है, अन्यथा आनंद ही आनंद है। बस इतना ही।

मैं सहज भाव से जीवन के साथ बह रही हूँ, जो भी सामने आता है, उसे बहुत आसानी से ग्रहण कर लेती हूँ। और करीब करीब हर बात के बारे में इनती निश्चिंत हो गई हूँ। यह जीवन इतना सरल कैसे हो गया? मेरे लिए यह अद्भुत विस्मय है।

अगर आज से पाँच या छह साल वर्ष पहले के दिनों को देखती हूँ, तो यही सोचती हूँ कि मैंने अपने भीतर इतनी उलझन, नाटक, जटिलता, तनाव, अवसाद और गुस्सा कहाँ से जमा कर लिया था? मैंने वह सारा कचरा कहाँ से बटोरा? मैं अचेतन भाव से ही वह सब अपने लिए जमा करती रही और मुझे लगता रहा कि वह सब असली था! मेरा मन अब भी कुछ चीज़ों को जटिल बनाने की तलाश में रहता है, पर इसके पास पकड़ने के लिए कुछ भी नहीं है। मैं देख सकती हूँ कि बस यह स्वयं को बनाए रखने के लिए केवल मसलों, विचारों और मतों के साथ ही जूझता रहता है। ज्यों ही मैं इनकी साक्षी बनती हूँ, मेरे लिए इन्हें छोड़ना और बस स्थिर हो जाना सहज हो जाता है।