सद्‌गुरु: मेरे साथ रहने वाले लोग जानते हैं कि मुझे ऐसा कुछ भी अच्छा नहीं लगता, जो बिल्कुल सीधे ढर्रे पर हो। यहाँ तक कि कार्यक्रमों में भी, मैं हमेशा यह देखता हूँ कि मेरी कुर्सी ठीक प्रवेश द्वार की सीध में न हो। इसे एक निश्चित तरीके़ से रखा जाता है। जब मैं बच्चा था, तो मैं कभी अपनी साइकिल को स्टैंड पर नहीं लगाता था, वह हमेशा दीवार के साथ टेक लगा कर रखी जाती। उसके बाद, जब मैं मोटरसाइकिल चलाने लगा, तो भी मैं उसे कभी स्टैंड पर खड़ा नहीं करता था, उसे उसके हैंडल के सहारे झुका दिया करता। यह मेरा कोई स्टाइल नहीं बल्कि मेरे लिए धर्म की तरह था। अगर मुझे उसे कहीं खड़ा करना पड़ता, तो उसे बड़े स्टैंड पर नहीं लगाता था, यह अपने साइड-स्टैंड पर ही खड़ी रहती थी। अगर मैं देख लेता कि मेरी मोटरसाइकिल सीधे स्टैंड पर खड़ी है, तो मैं शर्मिंदा हो जाता। मैं वापस जा कर, उसे अपने तरीके़ से खड़ा करता।