काशी के सात पुजारियों ने भेंट की योगेश्वर लिंग को सप्तऋषि आरती
21 दिसंबर को शीतकालीन संक्रांति के दिन काशी के मुख्य विश्वनाथ मंदिर के सात पुजारियों ने आदियोगी के प्रांगण(आँगन) में योगेश्वर लिंग को सप्तऋषि आरती भेंट की। यहां उन सातों पंडितों के अनुभव साझा किए जा रहे हैं, जो इस आरती के लिए काशी से आए थे।
काशी में सप्तऋषि पूजा के दौरान हुई सद्गुरु से मुलाक़ात
‘पूजा के दौरान हमारा ध्यान बस लिंग पर होता है। यहां तक कि दूसरे पुजारियों के साथ भी हमारी नजरें नहीं टकरातीं, लेकिन उस दिन आरती के दौरान हमारी नजरें दो बार टकराईं। पूजा करते हुए मेरे साथ ऐसा कभी कभार ही होता है। जाहिर है, ऐसा होना थोड़ा अस्वाभाविक था। मुझे याद है कि पूजा खत्म होते ही जब मैंने उन्हें उस स्थान पर बैठे हुए नहीं पाया, तो मैं उन्हें ढ़ूंढने बाहर गया, लेकिन वे जा चुके थे। उनके भीतर कुछ ऐसा था, जो मुझे छू गया था।’ काशी में सप्तऋषि पूजा के दौरान, सद्गुरु से दो साल पहले हुई मुलाकात को याद करते हुए श्री रामानंद दुबे जी ने ये बातें कहीं।
दिनेश जी, जो बीएचयू से डबल पीएचडी हैं और काशी के एक जाने-माने पुजारी हैं, प्राण प्रतिष्ठा कराने के लिए जाने जाते हैं। वह बताते हैं, ‘जैसे ही मैंने सद्गुरु को देखा, मैं उनकी तरफ ऐसा खिंचा जैसे लोहे का टुकड़ा किसी चुंबक की ओर खिंचता है। मैं देश के श्रेष्ठ गुरुओं, संतों और आचार्यों से मिला हूं, लेकिन इससे पहले कभी ऐसा अहसास नहीं हुआ।’ ये सब बातें कहते हुए दिनेश जी का गला भर आया।
ऐसा लगा भगवान विश्वनाथ मुझमें प्रकट हो गए हैं
दयानंद जी की सदगुरु के साथ पहली मुलाकात का असर और भी ज्यादा जबरदस्त था। उनका कहना था, ‘उस शाम सदगुरु से मिलने के बाद मैं सारी रात रोता रहा। जब उन्होंने मेरा हाथ छुआ तो मुझे ऐसा लगा जैसे भगवान विश्वनाथ स्वयं मेरे अंदर प्रकट हो गए हैं।’
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रामानंद जी ने कहा कि 21 तारीख को सद्गुरु जिस तरह पूजा में बैठे थे, उन्हें देखकर ऐसा लगा कि जैसे खुद भगवान शिव वहां विराजमान हैं और अपनी ही पूजा होते खुद देख रहे हैं। सभी पंडितों का कहना था कि हमें ऐसा लगा ही नहीं कि हम विश्वनाथ मंदिर में पूजा नहीं कर रहे। योगेश्वर लिंग के सामने यह सब करने में बिल्कुल वैसा ही अहसास हो रहा था, जैसा मुख्य मंदिर में होता है।
पूरा आश्रम मंदिर की तरह है
दिनेश जी और गणेश जी ने बताया कि काशी में पूजा के बाद हम थकान महसूस करते थे, जबकि इस जगह में इतना कंपन है कि हममें से कोई भी सुबह पांच बजे तक नहीं सोया। दिनेश जी के भाई गणेश जी ने भी ऐसा ही अनुभव किया। गणेश जी कहते हैं, ‘जब भी हम काशी में ऐसा करते हैं तो हमें अपनी रीढ़ में एक अलग तरह के कंपन का अहसास होता है और बिल्कुल वैसा ही अहसास मुझे यहां आश्रम में घुसते ही होने लगा।’ गणेश जी पूरे आश्रम में नंगे पैर ही घूमे, क्योंकि उनका कहना था, ‘मुझे नहीं पता कि यहां क्या मंदिर है और क्या मंदिर नहीं है। सारी जगह ही मंदिर के समान लग रही है।’
दिनेश जी ने कहा कि अब तक मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि मेरी जिंदगी में कुछ कमी है। लेकिन अब मुझे अपनी सीमाओं से परे जाकर खुद को जानने की तीव्र इच्छा का अनुभव हो रहा है। मैं इस आश्रम में स्वयंसेवक के रूप में काम करना चाहता हूं और इस आश्रम का और सदगुरु का हिस्सा बनना चाहता हूं।
ये पूजा पहली बार सप्त ऋषियों ने की थी
सप्तऋषि पूजा एक वंश परंपरा से चलती आ रही है। यानी परिवार के ही किसी व्यक्ति को यह पूरी प्रक्रिया सिखाई जाती है और फिर वह उसे आगे लेकर जाता है। कृष्णानंदजी, रामानंदजी और दयानंदजी स्वर्गीय परमानंदजी के पुत्र हैं, जो इस मंदिर के मुख्य पुजारियों में से एक थे। रामानंद जी ने इस प्राचीन परंपरा के बारे में बताया, ‘हमने सप्तऋषि पूजा को उसके पवित्र रूप में ही बनाए रखा है और जब से सप्तऋषियों ने यह पूजा पहली बार की, तब से हम इस वंश परंपरा को निभा रहे हैं।’
पहली सप्तऋषि पूजा ईशा के इतिहास में अवश्य ही दर्ज होगी, सिर्फ इसलिए नहीं कि यह एक शक्तिशाली प्रक्रिया है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि गूढ़ मानी जाने वाली यह पूजा पूरे विधि विधान से संपन्न हुई। सातों पुजारी जिस तरह पूरी कलात्मकता के साथ अर्पण कर रहे थे, वह सब हमारे मन में लंबे समय तक कायम रहेगा।
भगवान शिव ने सिखाई थी उन्हें ये पूजा
सदगुरु: जाने से पहले सप्तऋषियों ने आदियोगी शिव से अपना दर्द बताते हुए कहा, ‘अब हम यहां से जा रहे हैं। संभव है कि शारीरिक तौर पर हम अब आपको कभी नहीं देख पाएं। ऐसे में जब भी हमें आपकी जरूरत होगी, आप हमें कैसे मिलेंगे?’ आदियोगी ने उन्हें एक तरीका बताया- ‘आप जहां कहीं भी हों, आप ‘यह प्रक्रिया’ कीजिएगा, मैं वहां आपके पास मौजूद रहूंगा।’ उस दिन से लेकर आज तक इन पुजारियों द्वारा ‘सप्तऋषि आरती’ की जाती है। ये लोग काशी विश्वनाथ मंदिर में रोज संध्या के समय डेढ़ घंटे यह आरती करते हैं।
मैंने खुद महसूस किया है कि कैसे ये पुजारी ऊर्जा का अंबार लगा देते हैं। मेरे लिए विश्वास करना भी मुश्किल है कि सातों पंडित इस आरती को इतना स्पंदित कर सकते हैं। जो काम ये करते हैं, मैंने किसी मंदिर में इसकी कल्पना भी नहीं की थी। वह बस उस आरती को करते हैं और एक बहुत शानदार नजारा पैदा कर देते हैं। इनके प्रति मेरे मन में एक आदर भाव पैदा हुआ है। इन्होंने कम से कम इस प्रक्रिया को बनाए तो रखा है।