Sadhguru आज-कल बहुत सारे मंचों से बहुत सारे वक्ता आत्म-विकास की बात करते हैं। आखिर क्या है ‘आत्म-विकास’? और क्या यह संभव है?

 

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हर कोई आत्म-विकास की बात कर रहा है। आत्म-विकास कैसे किया जाए? आप शरीर का विकास कर सकते हैं, आप मन का विकास कर सकते हैं। आप अपने अहं को विकसित कर सकते हैं, जो वैसे भी हर कोई करता ही है। मगर आप आत्म-विकास कैसे कर सकते हैं? और अगर ‘आत्मा’ भी कोई ऐसी चीज है जिसका विकास किया जा सकता हैं, तो बेहतर है कि आप उसे त्‍याग दें, क्योंकि वह एक अपूर्ण वस्तु है। जो चीज अपूर्ण होती है, उसी को विकसित किया जा सकता है। अगर कोई चीज पहले से सर्वव्यापी, शाश्वत है, तो उसे कैसे विकसित किया जा सकता है?

‘आत्मा’ एक ऐसी चीज है, जिसे आप विकसित नहीं कर सकते। बाकी हर चीज का विकास आप कर सकते हैं। आप भूमि का, या फिर पूरी धरती का विकास कर सकते हैं, मगर आप आत्मा का विकास नहीं कर सकते।

साधना का मतलब कुछ बनाना या विकसित करना नहीं है। इसका मतलब आपके अंदर दिव्यता, या चैतन्य को पैदा करना नहीं है। दिव्यता हर किसी के अंदर मौजूद है। साधना बस आपकी आंखें खोलने के लिए है। साधना किसी अलार्म की घंटी की तरह है।

साधना का मतलब कुछ बनाना या विकसित करना नहीं है। इसका मतलब आपके अंदर दिव्यता, या चैतन्य को पैदा करना नहीं है। दिव्यता हर किसी के अंदर मौजूद है। साधना बस आपकी आंखें खोलने के लिए है। साधना किसी अलार्म की घंटी की तरह है। हम वास्तविकता के एक स्तर पर फंसे हुए हैं। यह वास्तविकता के दूसरे स्तर तक जागने की प्रक्रिया है। तो क्या यह स्वत: घटित हो सकता है? इसमें घटित होने जैसा कुछ नहीं है। अगर इसमें आपकी पूर्ण भागीदारी है, इतनी पूर्ण की आप इससे परे जा सकते हैं। या फिर आप बिल्कुल भी जुड़े नहीं हैं, कोई भागीदारी नहीं है, तब भी आप दूसरे स्तर को देख सकते हैं। यही दो तरीके हैं – या तो सौ फीसदी भागीदारी या बिल्कुल शून्य भागीदारी।

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