सद्‌गुरुइस चर्चा में सद्‌गुरु और जानें माने फैशन डिज़ाइनर सब्यसाची मुख़र्जी ने कपड़ों और वास्तुशिल्प की डिजाईन और सुंदरता से जुड़े अनेक पहलूओं पर प्रकाश डाला। जानते हैं जीवन में सुंदरता के महत्व के बारे में -

सहजता ही मेरी डिजाईन का मूल है - सब्यसाची मुखर्जी

अरुंधती : इस देश में हमारे पास डिजाइन की एक शानदार विरासत रही है – विजुअल आर्ट्स, प्लास्टिक आर्ट्स, परफार्मिंग आर्ट्स। मगर किसी वजह से आधुनिक भारत एक खास विरासत को उतनी सहजता से अपनाने में समर्थ नहीं दिखता।

मसलन, दुबई के सूखे रेगिस्तान में यूरोप के वास्तुशिल्प को देखकर अजीब सा लगता है। इसी तरह जब भारतीय लोग यूरोपीय कपड़े पहनने की कोशिश करते हैं तो भारतीय माहौल में वह अजीब लगता है।
इसकी कई ऐतिहासिक वजहें हैं। इस बारे में आपका क्या कहना है और आपके ख्याल से इस संबंध में क्या किया जा सकता है? कुछ खास परंपराओं को पुनर्जीवित करने, मगर साथ ही उन्हें किसी रूप में सीमित किए बिना उन्हें जीवंत रखने में आपकी क्या भूमिका रही है? कोई एक साथ भारतीय और ग्लोबल कैसे हो सकता है, जैसा आप अपने डिजाइन स्टेटमेंट में जिक्र करते हैं।

सब्यसाची मुखर्जी : मैं ऐसी पृष्ठभूमि से हूं, जहां मेरे पिता एक कैमिकल इंजीनियर थे और मेरी मां के परिवार में सभी डॉक्टर थे। इसलिए मैं उस परिवार का कलंक था जो फैशन उद्योग में उद्यमी बनने का सपना देखता था। मैंने कोलकाता से शुरुआत की, जहां फैशन में सफलता के कोई कीर्तिमान स्थापित नहीं किये गए थे। जब मैंने अपनी लाइन शुरू करने का फैसला किया तो मैंने सोचा कि मेरा नजरिया में सबसे अनोखा क्या होना चाहिए। पहली चीज जो मेरे दिमाग में आई, वह थी रंग।

आजकल हम ‘साइज जीरो’ नाम की किसी चीज की बात करते हैं, जो कभी हासिल न हो सकने वाली शारीरिक छवि है। यह छवि ऐसे व्यक्ति की है जो खाना नहीं खाता।
उस समय भारत में दूसरे सभी डिजाइनर बैंगनी, हल्का गुलाबी और हल्का पीला रंग इस्तेमाल कर रहे थे। यहां हमारे पास देश भर के, खास तौर पर दक्षिण के खूबसूरत रंग थे, जो वाकई हमारे देश के त्वचा के रंग को आकर्षक बनाकर उभारते हैं।

अगर आप वास्तुशिल्प, वनस्पतियों और जीव-जंतुओं को देखें तो मेरे ख्याल से सब कुछ सुंदर लगता है, अगर आप उन्हें उस तरह रखें जैसा उन्हें होना चाहिए और जिस तरह के वातावरण में होना चाहिए। मसलन, दुबई के सूखे रेगिस्तान में यूरोप के वास्तुशिल्प को देखकर अजीब सा लगता है। इसी तरह जब भारतीय लोग यूरोपीय कपड़े पहनने की कोशिश करते हैं तो भारतीय माहौल में वह अजीब लगता है। फैशन बहुत निर्दयी उद्योग है। हम मानदंडों को इतना ऊंचा उठाने की कोशिश करते हैं कि वह इंसानों की पहुंच के बाहर हो जाता है। आजकल हम ‘साइज जीरो’ नाम की किसी चीज की बात करते हैं, जो कभी हासिल न हो सकने वाली शारीरिक छवि है। यह छवि ऐसे व्यक्ति की है जो खाना नहीं खाता।

विलासिता या लक्ज़री आराम से जुड़ी है - सब्यसाची मुखर्जी

ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि इसे प्राप्त करना बहुत मुश्किल है। अधिक से अधिक स्त्रियां इसका शिकार बन रही हैं और वे इस कभी न मिल पाने वाले लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ढेर सारा पैसा खर्च करती हैं। इसी तरह जब मेरे कारोबार शुरू करने के समय इस देश में विलासिता या लक्ज़री के जो पैरोकार थे, वे सब कुछ ऐसा करने की कोशिश कर रहे थे जो एक तरह से देश के लिए अजनबी था और उन्हें लगता था कि वह विलासिता है। मगर मेरे लिए विलासिता आरामदेह महसूस करने और सहज महसूस करने से जुड़ी है। इसीलिए हमने एक भारतीय लाइन शुरू की। लोगों ने मेरी कामयाबी के बारे में बहुत से सिद्धांत लिखे हैं मगर मैं बस यही कह सकता हूं कि मैंने सिर्फ अपने सहज ज्ञान का इस्तेमाल किया।

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उपयोगी होना नहीं, सुन्दरता से जीना ज्यादा महत्वपूर्ण है

टेक्सटाइल और वास्तुशिल्प – एक गौरवशाली इतिहास

अरुंधती : सद्‌गुरु, क्या आप हमारी भारतीय विरासत के बारे में कुछ बताना चाहेंगे, जिसका हमें अपनी बाहरी दुनिया में पर्याप्त प्रमाण नहीं मिलता। ऐसा लगता है कि हम जर्जर स्मारकों और आहत कपड़ा बुनकरों के ढेर तक सीमित हो गए हैं।

सद्‌गुरु : जब कपड़े की बात आती है, तो धरती पर दूसरी कोई जगह नहीं है, जहां इतनी सारी बुनावट है और कपड़ा रंगने और तैयार करने की इतनी विधियां हैं, जैसी इस संस्कृति में हैं। हालांकि इनमें से बहुत सी कलाएं उपेक्षा के कारण या किन्हीं उद्देश्यों के कारण मर चुकी हैं। अंग्रेज भारत में कपड़ा उद्योग को नष्ट करना चाहते थे क्योंकि उनके पास मैनचेस्टर था। एक समय में दुर्भाग्यवश कोयंबटूर को ‘भारत का मैनचेस्टर’ कहा जाता था। उन्हें मानचेस्टर को ‘ब्रिटेन का कोयंबटूर’ कहना चाहिए था क्योंकि हम हजारों सालों से कपास उगा रहे हैं, कपड़े बना रहे हैं और उनका निर्यात कर रहे हैं। भारतीय कपड़े दुनिया भर में पहुंचे, आप अब भी सीरिया और मिस्र के प्राचीन स्थानों पर इसका प्रमाण देख सकते हैं।

कपड़ा उद्योग को बर्बाद किया गया

हमारा देश लंबे समय तक कब्जे में रहा और पिछले 250 सालों में खास तौर पर कपड़ा उद्योग की क्रमिक बर्बादी हुई है जो कृषि के अलावा यहां का मुख्य उद्योग था।

अगर आप एल्लोरा में कैलाश मंदिर और तमिलनाडु के मंदिरों को देखें, तो आपको इंसान होने पर गर्व महसूस होगा। उनमें ज्यामिति, सौंदर्यबोध और इंजीनियरिंग की बनावट और संपूर्णता अद्भुत है।
अंग्रेजों की सारी योजना यहां के उद्योगों को नष्ट करने, यहां से कच्चा माल लेने और अपने उत्पादों को फिर से भारत में बेचने की थी क्योंकि वे अपनी अर्थव्यवस्था को लाभ पहुंचाना चाहते थे। इस उपमहाद्वीप के वास्तुशिल्प में सौंदर्यबोध की सरलता ऐसी थी कि यहां उपलब्ध सामग्री – पत्थरों, मिट्टी और ईंट से हमने अद्भुत चीजें बनाईं।

इसका एक अनोखा उदाहरण नेपाल में भक्तपुर का है। दुर्भाग्यवश, वहां भूकंप ने बड़ा नुकसान पहुंचाया है मगर मेरे ख्याल से वे कुछ हद तक उसे ठीक कर लेंगे। वह एक हजार साल पुराना जीवंत शहर है। लगभग पूरा प्राचीन भारत उसके जैसा ही था। वहां हर कदम पर सौंदर्यबोध है। किसी जलाशय को भी मंदिर की तरह डिजाइन किया गया है। आप कल्पना कर सकते हैं कि उसके पीछे सौंदर्यबोध की कैसी भावना थी और उन सब को बनाने में कितना पैसा, मेहनत और समय लगा होगा।

अगर आप एल्लोरा में कैलाश मंदिर और तमिलनाडु के मंदिरों को देखें, तो आपको इंसान होने पर गर्व महसूस होगा। उनमें ज्यामिति, सौंदर्यबोध और इंजीनियरिंग की बनावट और संपूर्णता अद्भुत है। यह अविश्वसनीय लगता है कि यह सब इंसानी हाथों ने किया। यह जानना हमारे लिए महत्वपूर्ण है कि सैंकड़ों साल पहले लोग ऐसा कुछ बना सकते थे।

उपयोग नहीं, सौन्दर्य का महत्व है

आज भारत में सब कुछ उपयोगिता से जुड़ा है। कुछ खूबसूरत बनाना जरूरी नहीं समझा जाता। अगर सब कुछ उपयोगिता से जुड़ा है, तो मैं आपसे पूछना चाहूंगा कि आपके जीवन का क्या उपयोग है? अगर आपको लगता है कि आपका जीवन उपयोगी है, तो आप मूर्ख हैं।

आज हमारा सौंदर्यबोध खत्म हो गया है। अगर आप तमिलनाडु से गुजरें, खास तौर पर केरल से, तो आप देखेंगे कि आधे घर एक्रेलिक पेंट के सभी शेड्स में रंगे हुए हैं। यह हजारों सालों की गरीबी का नतीजा है।
अगर आप यहां मौजूद नहीं होते, तो भी दुनिया घूमती रहती, सब कुछ ऐसे ही चलता रहता। जब आप मर जाएंगे, तब आपको यह एहसास होगा। आपके बिना सब कुछ परफेक्ट होगा। ऐसा नहीं है कि हम किसी रूप में उपयोगी हैं। अगर इंसान नहीं होते, तो धरती खूब फलती-फूलती। सवाल यह नहीं है कि हम कितने उपयोगी हैं, बल्कि यह है कि हम कितनी सुंदरता से जीते हैं। कोई दूसरा प्राणी प्रकृति की सुंदरता को नष्ट नहीं करता। इंसानों के तौर पर हमारा जीवन और हमारी जरूरतें ऐसी हैं कि हम प्राकृतिक सुंदरता को काफी नष्ट कर देते हैं। जब स्थिति यह है, तो हमारा काम है कि हम जो कुछ बनाएं, वह खूबसूरत हो। चाहे वह कोई इमारत हो, कोई दूसरी संरचना, आपका शरीर, कपड़े या कुछ और, हमें जितना हो सके, प्रकृति के सौंदर्य की क्षतिपूर्ति करनी चाहिए।

आज हमारा सौंदर्यबोध खत्म हो गया है। अगर आप तमिलनाडु से गुजरें, खास तौर पर केरल से, तो आप देखेंगे कि आधे घर एक्रेलिक पेंट के सभी शेड्स में रंगे हुए हैं। यह हजारों सालों की गरीबी का नतीजा है। सुंदरता और सौंदर्यबोध को फिर से लाने के लिए आर्थिक खुशहाली जरूरती है। आबादी का एक बड़ा हिस्सा अब भी किसी तरह गुजारा करता है। मगर असल में गांवों की छोटी-छोटी चीजों में काफी सुंदरता है। बीच के लोग, जो गरीबी से निकल गए हैं मगर अभी संपन्न नहीं हुए हैं, सौंदर्य बोध के सबसे बड़े दुश्मन हैं।

सब्यसाची मुखर्जी: यह सच है।

भारत और बच्चों की फ़िल्में देती हैं प्रेरणा

अरुंधती : सब्यसाची इस संदर्भ में डिजाइन बनाने के लिए आपके प्रेरणा स्रोत क्या रहे हैं?

सब्यसाची मुखर्जी : मेरे ख्याल से प्रेरणा का सबसे बड़ा स्रोत संवेदना है। जब मैं भारत को देखता हूं, तो मेरे अंदर गर्व पैदा होता है। इसके अलावा मैं बच्चों की फिल्मों से प्रेरणा लेता हूं। मेरी एक पसंदीदा फिल्म डिज्नी की फिल्म ‘ए  बग्स लाइफ’ है।

मेरे ख्याल से अगर भारत भारतीय होने में थोड़ा और गर्व महसूस करे, तो हम वाकई एक शानदार देश होंगे और निश्चित रूप से सौंदर्य बोध के मामले में लोग हमें अलग नजरिये से देखेंगे।
उसमें चींटियों की एक कॉलोनी और झींगुरों की एक कॉलोनी थी। चींटियां लाखों की संख्या में थीं और झींगुर सिर्फ छह या सात थे। चींटियां व्यवस्थित रूप से खाना इकट्ठा करती थीं और अपने अड्डे पर ले जाती थीं। झींगुर आकर अपने बड़े आकार से डरा-धमकाकर चींटियों का भोजन ले जाते थे। एक दिन एक नन्हें झींगुर ने अपने पिता से थोड़ी ऊंची आवाज में कहा, ‘पापा, हम इतने कम हैं और चींटियां इतनी सारी हैं। फिर हम उनका खाना कैसे छीन लेते हैं?’ पिता ने कहा, ‘चुप रहो। वे अब भी नहीं जानतीं कि उनकी संख्या इतनी ज्यादा है।’

भारत के साथ यही है कि हमारे पास बहुत कुछ है, मगर चूंकि बहुत लंबे समय तक हम बाहरी शक्तियों के अधीन रहे, इसलिए हम अपनी चीजों को स्वीकार करने और उन्हें अपनाने का उत्साह खो बैठे हैं। जैसे बॉलीवुड का उदाहरण लेते हैं। देश के लोग कपड़ों के मामले में उसका अनुसरण करते हैं। फिर भी जब कोई अभिनेत्री या अभिनेता कोई बड़ा पुरस्कार लेने देश के बाहर जाता है, तो वे ज्यादातर पश्चिमी परिधान पहनते हैं। विलासिता को अधीनता नहीं नेतृत्व से तैयार करना होगा। जब आप पश्चिम जाकर उनके जैसे कपड़े पहनते हैं, तो आप कभी असर नहीं डाल पाएंगे। जब हम अपनी विरासत पर गर्व महसूस करते हैं, तो अपने आप सारा देश, हम खुद को जिस नजर से देखते हैं, सब कुछ बदल जाएगा। मेरे ख्याल से अगर भारत भारतीय होने में थोड़ा और गर्व महसूस करे, तो हम वाकई एक शानदार देश होंगे और निश्चित रूप से सौंदर्य बोध के मामले में लोग हमें अलग नजरिये से देखेंगे।