सदाशिव ब्रह्मेन्द्र सरस्वती एक अवधूत संत थे, जिन्होंने संन्यास लेने के बाद अपना अधिकतर जीवन अर्धनग्न या फिर पूर्णनग्न अवस्था में बिताया। वे हमेशा अपने भीतर ध्यानमग्न रहते थे, और उनके आस-पास और यहाँ तक की उनके शरीर के साथ होने वाली चीज़ों का भी उन्हें होश नहीं रहता था ...

सदाशिव एक अतिसक्रिय युवा थे, और खूब बोलने वाले व्यक्ति थे। 17वीं सदी से लेकर 18वीं सदी के बीच तमिलनाडु के पास कुंभकोणम में रहे। सत्य की खोज में उन्होंने अपना घर त्याग दिया।

 

सदाशिव का जन्म एक तेलुगु दंपत्ति के घर हुआ। उनका शुरुआती नाम शिवरामकृष्ण था। सत्रह साल की उम्र में उनकी शादी हो गई। सदाशिव 17वीं सदी से लेकर 18वीं सदी के बीच तमिलनाडु के पास कुंभकोणम में रहे। सत्य की खोज में उन्होंने अपना घर त्याग दिया।

एक बार की बात है कि वह गहरे ध्यान में खोए हुए थे तो नदी की धारा उन्हें अपने प्रवाह में बहा ले गई। नदी के पानी के साथ वह रेत के भीतर गड़ गए। छह महीने बाद जब रेत खोदने वाले ने रेत की खुदाई की तो उसकी कुल्हाड़ी सदाशिव के सिर से जा टकराई।
कहा जाता है कि संन्यास लेने के बाद वह इधर-उधर नंगे व आधे नंगे ध्यानावस्था में घूमते रहते थे। वह एकांतवासी और अकसर ध्यानमग्न रहते थे, जिसे ‘परम अलमस्त अवस्था’ कहा जा सकता है।

 

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इस शरीर व भौतिक जगत से वीतरागी होकर उन्होंने काष्य, दंड और कमंडल तक को तिलांजलि दे दी और अवधूत बनकर दुनियाभर में घूमते रहे। अपने प्रवास के दौरान जब वह पुडुकोट्टई राज्य की सीमा में पहुंचे तो वहां के राजा विजय रघुनाथ थोंडइमन ने उनसे आशीर्वाद देने की प्रार्थना की, जिसके बाद उन्हें ढेर सारा आशीर्वाद मिला।

 

सदाशिव एक अतिसक्रिय युवा थे, और खूब बोलने वाले व्यक्ति थे। एक बार उनकी लगातार बड़बड़ से परेशान होकर उनके गुरु ने उन्हें बुलाया और कहा, ‘सदाशिव, तुम कब मौन होना सीखोगे?’ शिष्य ने जवाब दिया, ‘तत्काल, गुरुजी।’ उसके बाद से वह ऐसे मौन हुए कि फिर जीवनभर नहीं बोले। धीरे-धीरे वह इस भौतिक दुनिया से दूर होते गए। उन्होंने आत्मचिंतन व आत्ममंथन शुरू कर दिया और उसके बाद उन्होंने खुद को गहन साधना में झोंक दिया। उन्होंने समाज के सारे नियमों का बहिष्कार कर दिया और नंगे होकर निरुदेश्य पहाड़ी इलाकों और कावेरी नदी के आसपास घूमने लगे। वह देखने में जंगली और पागल नजर आते थे। यह बात जब किसी ने उनके गुरु परमशिवेंद्र को बताई कि उनका शिष्य पागल हो गया है तो वह खुशी से भर उठे और बोले, ‘क्या मैं कभी इतना खुशकिस्मत हो पाउंगा।’ उन्हें समझ में आ गया था कि उनका शिष्य अब अवधूत हो गया है। फिर सदाशिव ब्रम्हेंद्र शरीर का ध्यान रखे बिना, समाज के सामान्य आचार-विचारों व सांसारिक सरोकारों से निर्लिप्त रहते हुए लंबे समय तक उसी अवस्था में रहे।

सदाशिव ब्रह्मेंद्र सरस्वती - एक अवधूत संत सदाशिव ब्रह्मेंद्र सरस्वती - एक अवधूत संत

 

साल 1755 ईसवी में सदाशिव ब्रह्मेंद्र ने वैशाख शुक्ल दशमी के दिन महासमाधि ले ली। नेरूर में उनका आदिस्थानम बेहद शक्तिशाली और जाग्रत स्थान है, जहां ब्रह्मेंद्र से र्मागदर्शन लेने आए तमाम श्रद्धालुओं की सच्ची प्रार्थनाओं के उत्तर मिलते हैं। उनकी पावन समाधि पर जाकर व्यक्ति को आत्म आनंद, संपूर्णता व परम बोध यानी ‘आनंद पूर्ण बोधम’ की अनुभूति होती है।

 

शरीर के साथ दूरी

सदाशिव ध्यान के लिए कावेरी नदी के बीच में एक चट्टान पर बैठा करते थे। एक बार की बात है कि वह गहरे ध्यान में खोए हुए थे तो नदी की धारा उन्हें अपने प्रवाह में बहा ले गई। नदी के पानी के साथ वह रेत के भीतर गड़ गए। छह महीने बाद जब रेत खोदने वाले ने रेत की खुदाई की तो उसकी कुल्हाड़ी सदाशिव के सिर से जा टकराई। कुल्हाड़ी बाहर आई तो उसमें खून लगा था।

उनके गुरु ने उन्हें बुलाया और कहा, ‘सदाशिव, तुम कब मौन होना सीखोगे?’ शिष्य ने जवाब दिया, ‘तत्काल, गुरुजी।’ उसके बाद से वह ऐसे मौन हुए कि फिर जीवनभर नहीं बोले।
यह बात गांव के मुखिया के ध्यान में लाई गई। तुरंत उन्हें बाहर निकाला गया। उनके शरीर पर फलों के रस का लेप किया गया। सदाशिव नींद से जागे तो यूं ही चल पड़े। तब से उन्हें सदाशिव ब्रह्मम या सदाशिव ब्रह्मेंद्राल के नाम से जाना जाता है।

 

उनकी अपने शरीर के साथ उदासीनता ऐसी ही थी। शरीर के साथ उनकी दूरी की एक घटना और सामने आती है। एक बार की बात है कि भूसे के दो बंडलों के बीच सदाशिव गिर पड़े। किसानों का ध्यान इस बात पर नहीं गया। वे उन बंडलों के ऊपर भूसे के और बंडल रखते गए और देखते ही देखते उसका ढेर खड़ा हो गया। लगभग एक साल बाद जब भूसे के ढेर को हटाया गया तो उसके नीचे से ब्रह्मेंद्र ऐसे निकलकर बाहर चल दिए, मानो इस बीच कुछ हुआ ही न हो।

पहुंचे राजा के उद्यान में

उन्हें किसी तरह की सीमा और संपत्ति का भी होश नहीं था। एक दिन वह कावेरी नदी के तट पर स्थित राजा के उद्यान में पहुंच गए। राजा अपनी रानियों के साथ आराम कर रहा था। तभी उसने सदाशिव ब्रह्मेंद्र को उद्यान में स्त्रियों के सामने नग्‍न चलते देखा। सदाशिव ब्रह्मेंद्र के लिए पुरुष या स्त्री का कोई भेद नहीं था। राजा क्रोधित हो गया। “कौन है यह मूर्ख जो मेरी रानियों के सामने नग्न हो कर आ गया है।” उसने अपने सैनिकों को बुलाकर आदेश दिया, “पता लगाओ कि यह मूर्ख कौन है?” सिपाही उसके पीछे दौड़े और योगी को पुकारा। उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और बस चलते रहे। सिपाहियों ने क्रोधित होकर अपनी तलवार निकाल ली और उन पर वार किया। उनका दाहिना हाथ कट गया। लेकिन उनकी चाल नहीं थमी। वह चलते रहे। यह देखकर सैनिक डर गए। उन्हें लगा कि यह कोई साधारण मनुष्य नहीं है। अपना हाथ कटने के बाद भी वह चल रहा है! राजा और सिपाही उनके पीछे दौड़े, उनके पैरों पर गिर पड़े और उन्हें वापस उद्यान में ले कर आए। उन्होंने अपना बाकी जीवन उसी उद्यान में बिताया और वहीं पर शरीर त्यागा।