धर्म या अध्यात्म की साधना में, अक्सर जो सबसे पहला सवाल मन में उठता है, वो ये है कि क्या सच में इश्वर का अस्तित्व है?  कैसे मिलेगा इसका उत्तर? कैसे पैदा होगी उत्तर जानने की संभावना?

जो कुछ भी अनुभव में नहीं, उसे समझ नहीं सकते

अब अगर मैं किसी ऐसी चीज़ के बारे में बात करूँ जो आपके वर्तमान अनुभव में नहीं है, तो आप उसे नहीं समझ पाएंगे। मान लीजिए, आपने कभी सूर्य की रोशनी नहीं देखी और इसे देखने के लिए आपके पास आंखें भी नहीं हैं।

अगर आप यह स्वीकार नहीं कर पाते कि, 'मैं नहीं जानता हूँ’, तो आपने अपने जीवन में जानने की सभी संभावनाओं को नष्ट कर दिया है। अगर आप वाकई जानना चाहते हैं तो आपको अपने भीतर मुडऩा होगा, अपनी आंतरिक प्रकृति से जुडऩा होगा।

ऐसे में अगर मैं इसके बारे में बात करूं, तो चाहे मैं इसकी व्याक्या कितने ही तरीके से कर डालूं, आप समझ नहीं पाएंगे कि सूर्य की रोशनी होती क्या है। इसलिए कोई भी ऐसी चीज़ जो आपके वर्तमान अनुभव में नहीं है, उसे नहीं समझा जा सकता। इसलिए इसके बाद जो एकमात्र संभावना रह जाती है, वह है कि आपको मुझ पर विश्वास करना होगा। मैं कह रहा हूँ, वही आपको मान लेना होगा। अब अगर आप मुझ पर विश्वास करते हैं, तो यह किसी भी तरह से आपको कहीं भी नहीं पहुंचाएगा। अगर आप मुझ पर विश्वास नहीं करते हैं, तब भी आप कहीं नहीं पहुँच पाएंगे। मै आपको एक कहानी सुनाता हूं।

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इस प्रश्न का क्या उत्तर दिया था गौतम बुद्ध ने?

एक दिन, सुबह-सुबह, गौतम बुद्ध अपने शिष्यों की सभा में बैठे हुए थे। सूरज निकला नहीं था, अभी भी अँधेरा था। वहां एक आदमी आया। वह राम का बहुत बड़ा भक्त था। उसने अपना पूरा जीवन ''राम, राम, राम” कहने में ही बिताया था। इसके अलावा उसने अपने पूरे जीवन में और कुछ भी नहीं कहा था। यहां तक कि उसके कपड़ों पर भी हर जगह ''राम, राम” लिखा था। वह केवल मंदिरों में ही नहीं जाता था, बल्कि उसने कई मंदिर भी बनवाए थे। अब वह बूढ़ा हो रहा था और उसे एक छोटा सा संदेह हो गया। ''मैं जीवन भर 'राम, राम’ कहता रहा, लेकिन वे लोग जिन्होंने कभी ईश्वर में विश्वास नहीं किया, उनके लिए भी सूरज उगता है।

देखिए, अगर आप मुझ पर विश्वास करते हैं, तो आप स्वयं को मूर्ख बना रहे हैं। बिना जाने आप केवल जानने का बहाना करेंगे। अगर आप मुझ पर अविश्वास करते हैं, तो आप जानने की उस संभावना को नष्ट कर देंगे जो आपके अनुभव में नहीं है।

उनकी सांसें भी चलती हैं। वे भी आनंदित हैं एवं उनके जीवन में भी खुशियों के कई मौके आए हैं। मैं बैठकर बस 'राम, राम’ कहता रहा। मान लो, जैसे कि वे कहते हैं, कि कोई ईश्वर नहीं है, तब तो मेरा पूरा जीवन बेकार चला गया।” वह जानता था कि ईश्वर है लेकिन उसे एक छोटा सा संदेह हो गया, बस इतना ही था। ''एक अलौकिक आदमी यहां मौजूद है, उससे बात कर मुझे अपना संदेह दूर कर लेना चाहिए।” लेकिन सबके सामने यह प्रश्न कैसे पूछा जाए? इसलिए वह सूर्योदय से पहले आया, जबकि अंधेरा अभी पूरी तरह से छंटा नहीं था। एक कोने में खड़े होकर उसने बुद्ध से प्रश्न किया, 'क्या ईश्वर है या नहीं?" गौतम बुद्ध ने उसे देखा और कहा, 'नहीं’। शिष्यों के बीच से 'उफ्फ ’ की आवाज़ निकली, उन्होंने राहत भरी सांस ली। ईश्वर है या नहीं, यह द्वंद् उनमें प्रतिदिन चलता रहता था। उन्होंने कई बार गौतम से यह प्रश्न किया था और जब भी यह प्रश्न किया जाता था, गौतम चुप रह जाते थे। यह पहला मौका था, जब उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा, 'नहीं’।

ईश्वर के बिना रहना कितना आनंददायक था। शष्यों के बीच खुशी की लहर दौड़ गई। वह दिन सबके लिए एक खुशी का दिन था।

एक भौतिकवादी ने भी किया बुद्ध से वही प्रश्न

शाम को, फिर बुद्ध अपने शिष्यों के बीच बैठे हुए थे, उसी समय एक दूसरा आदमी आया। वह एक 'चार्वाक’ था। क्या आप जानते हैं कि चार्वाक कौन होता है? उन दिनों एक समूह हुआ करता था, जिन्हें चार्वाक कहा जाता था। वे पूरे भौतिकवादी लोग होते थे। वे किसी चीज़ में विश्वास नहीं करते। वे केवल उसी में विश्वास करते थे, जिसे वे देख सकते थे। इसके अलावा, उनके लिए किसी और किसी चीज़ का अस्तित्व नहीं होता।

अब वह बूढ़ा हो रहा था और उसके मन में एक छोटा सा संदेह आ गया। “मैं पूरे जीवन लोगों को कहता रहा कि ईश्वर नहीं है। मान लो अगर ईश्वर है तो जब मैं वहां जाऊंगा तो क्या वह मुझे छोड़ेगा? लोगों से वह नरक के बारे में कई बार सुन चुका था।

दरअसल, यही सारी समस्या है। आप स्वर्ग का पता भी जानते हैं, लेकिन आपको इसका कोई बोध नहीं है कि इस क्षण आपके भीतर क्या हो रहा है।

अब उसे थोड़ी सी शंका हो गई। वह जानता है कि ईश्वर नहीं है, वह अपना पूरा जीवन यही साबित करता रहा, लेकिन उसे थोड़ा सा संदेह हो गया। 'मान लो अगर ईश्वर है? तो संकट क्यों मोल लिया जाए? शहर में एक अलौकिक पुरुष है। उनसे जऱा मैं पूछ ही लँ।” इसलिए देर शाम को, अंधेरा होने के बाद वह गौतम के पास पहुंचा और उसने गौतम से पूछा, "क्या ईश्वर है?” गौतम ने उसे देखा और कहा, ''हां”। एक बार फिर शिष्यों के बीच बड़ा संघर्ष शुरू हो गया। सुबह से वे बहुत खुश थे, क्योंकि उन्होंने कहा था कि ईश्वर नहीं है, लेकिन शाम को वह कह रहे हैं कि ईश्वर है। ऐसा क्यों है?

विश्वास करना या अविश्वास करना - दोनों ही रुकावटें हैं

देखिए, अगर आप मुझ पर विश्वास करते हैं, तो आप स्वयं को मूर्ख बना रहे हैं। बिना जाने आप केवल जानने का बहाना करेंगे। अगर आप मुझ पर अविश्वास करते हैं, तो आप जानने की उस संभावना को नष्ट कर देंगे जो आपके अनुभव में नहीं है। आप ईश्वर को जानते हैं, आप जानते हैं कि वह कहाँ रहता है, आप उसका नाम जानते हैं, आप जानते हैं कि उसकी पत्नी कौन है, आप जानते हैं कि उसके बच्चे कितने हैं, आप उसका जन्मदिन जानते हैं, आप जानते हैं कि वह अपने जन्मदिन पर कौन सी मिठाई पसंद करता है। आप सब कुछ जानते हैं, लेकिन आप यह नहीं जानते कि आपके भीतर क्या हो रहा है। दरअसल, यही सारी समस्या है। आप स्वर्ग का पता भी जानते हैं, लेकिन आपको इसका कोई बोध नहीं है कि इस क्षण आपके भीतर क्या हो रहा है।

ईमानदारी से अपना अनुभव स्वीकार लें

जो आपके अनुभव में है उसे आप जानते हैं। जो आपके अनुभव में नहीं है, आपको यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि उसका अस्तित्व नहीं है। बस इतना कहिए कि, "मैं नहीं जानता”। अगर आप इस अवस्था में पहुंच गए हैं, तो विकास अपने आप हो जाएगा। सभी लोग उस बारे में बहस किए जा रहे हैं जिसे वे मूलत: नहीं जानते, क्योंकि कहीं-न-कहीं उन्होंने यह गुण खो दिया है जिससे कि वे पूरी ईमानदारीपूर्वक स्वीकार कर पाएं कि, 'मैं नहीं जानता’। अगर आप यह स्वीकार नहीं कर पाते कि, 'मैं नहीं जानता हूँ’, तो आपने अपने जीवन में जानने की सभी संभावनाओं को नष्ट कर दिया है। अगर आप वाकई जानना चाहते हैं तो आपको अपने भीतर मुडऩा होगा, अपनी आंतरिक प्रकृति से जुडऩा होगा।