मृत्यु के समय एक शांतिपूर्ण माहौल तैयार करने की परंपरा है। क्या मृत्यु के पल का मरने वाले व्यक्ति के ऊपर प्रभाव पढता है? क्या यह उसके अगले जन्म से जुड़ा है?

 

जिज्ञासु: भगवद्गीता में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ‘मृत्यु के समय, जो इंसान सिर्फ मुझे याद करते हुए अपना शरीर छोड़ता है, वह नि:संदेह मुझे पा लेता है। हे कुंतीपुत्र, मृत्यु के समय इंसान जिस अवस्था को याद करता है, उसके विचार में मग्न होने के कारण वह उसी अवस्था को पा लेता है। इसलिए हर समय मुझे याद करते हुए अपना धर्म करते रहो। जब तुम्हारा मन और बुद्धि मुझमें लगी रहेगी, तो तुम नि:संदेह मुझे पा लोगे।’ सद्गुरु, क्या यह इतना ही सरल है?

सद्‌गुरु: हां, यह इतना ही सरल है, लेकिन . . .। इस संबंध में एक बहुत सुंदर कहानी है। नारद मुनि जहां भी जाते थे, बस ‘नारायण, नारायण’ कहते रहते थे। नारद को तीनों लोकों में जाने की छूट थी। वह आराम से कहीं भी आ-जा सकते थे। एक दिन उन्होंने देखा कि एक किसान परमानंद की अवस्था में अपनी जमीन जोत रहा था। नारद को यह जानने की उत्सुकता हुई कि उसके आनंद का राज क्या है। जब वह उस किसान से बात करने पहुंचे, तो वह अपनी जमीन को जोतने में इतना डूबा हुआ था, कि उसने नारद पर ध्यान भी नहीं दिया। दोपहर के समय, उसने काम से थोड़ा विराम लिया और खाना खाने के लिए एक पेड़ के नीचे बैठा। उसने बर्तन को खोला, जिसमें थोड़ा सा भोजन था। उसने सिर्फ ‘नारायण, नारायण, नारायण’ कहा और खाने लगा।

आप जिस पल जीवन के एक आयाम से दूसरे आयाम में जाते हैं  उस समय अगर आप सिर्फ अपनी जागरूकता कायम रख पाएं, तो आपको मुक्ति मिल सकती है।
किसान अपना खाना उनके साथ बांटना चाहता था मगर जाति व्यवस्था के कारण नारद उसके साथ नहीं खा सकते थे। नारद ने पूछा, ‘तुम्हारे इस आनंद की वजह क्या है?’ किसान बोला, ‘हर दिन नारायण अपने असली रूप में मेरे सामने आते हैं। मेरे आनंद का बस यही कारण है।’ नारद ने उससे पूछा, ‘तुम कौन सी साधना करते हो?’ किसान बोला, ‘मुझे कुछ नहीं आता। मैं एक अज्ञानी, अनपढ़ आदमी हूं। बस सुबह उठने के बाद मैं तीन बार ‘नारायण’ बोलता हूं। अपना काम शुरू करते समय मैं तीन बार ‘नारायण’ बोलता हूं। अपना काम खत्म करने के बाद मैं फिर तीन बार ‘नारायण’ बोलता हूं। जब मैं खाता हूं, तो तीन बार ‘नारायण’ बोलता हूं और जब सोने जाता हूं, तो भी तीन बार ‘नारायण’ बोलता हूं।’ नारद ने गिना कि वह खुद 24 घंटे में कितनी बार ‘नारायण’ बोलते हैं। वह लाखों बार ऐसा करते थे। मगर फिर भी उन्हें नारायण से मिलने के लिए वैकुण्ठ तक जाना पड़ता था, जो बहुत ही दूर था। मगर खाने, हल चलाने या बाकी कामों से पहले सिर्फ तीन बार ‘नारायण’ बोलने वाले इस किसान के सामने नारायण वहीं प्रकट हो जाते थे। नारद को लगा कि यह ठीक नहीं है, इसमें जरूर कहीं कोई त्रुटि है।

वह तुरंत वैकुण्ठ पहुंच गए और उन्होंने विष्णु से पुछा, ‘मैं हर समय आपका नाम जपता रहता हूं, मगर आप मेरे सामने नहीं प्रकट नहीं होते। मुझे आकर आपके दर्शन करने पड़ते हैं। मगर उस किसान के सामने आप रोज प्रकट होते हैं और वह परमानंद में जीवन बिता रहा है!’ विष्णु ने नारद की ओर देखा और लक्ष्मी को तेल से लबालब भरा हुआ एक बर्तन लाने को कहा। उन्होंने नारद से कहा, ‘पहले आपको एक काम करना पड़ेगा। तेल से भरे इस बर्तन को भूलोक ले जाइए। मगर इसमें से एक बूंद भी तेल छलकना नहीं चाहिए। इसे वहां छोड़कर आइए, फिर हम इस प्रश्न का जवाब देंगे।’ नारद तेल से भरा बर्तन ले कर भूलोक गए, उसे वहां छोड़ कर वापस आ गए और बोले, ‘अब मेरे प्रश्न का जवाब दीजिए।’ विष्णु ने पूछा, ‘जब आप तेल से भरा यह बर्तन लेकर जा रहे थे, तो आपने कितनी बार नारायण बोला?’ नारद बोले, ‘उस समय मैं नारायण कैसे बोल सकता था? आपने कहा था कि एक बूंद तेल भी नहीं गिरना चाहिए, इसलिए मुझे पूरा ध्यान उस पर देना पड़ा। मगर वापस आते समय मैंने बहुत बार ‘नारायण’ कहा।’ विष्णु बोले, ‘यही आपके प्रश्न का जवाब है। उस किसान का जीवन तेल से भरा बर्तन ढोने जैसा है जो किसी भी पल छलक सकता है। उसे अपनी जीविका कमानी पड़ती है, उसे बहुत सारी चीजें करनी पड़ती हैं। मगर उसके बावजूद, वह नारायण बोलता है। जब आप इस बर्तन में तेल लेकर जा रहे थे, तो आपने एक बार भी नारायण नहीं कहा। यानी यह आसान तब होता है जब आपके पास करने के लिए कुछ नहीं होता।’

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मृत्यु के पल जरुरी है जागरूकता

जब मृत्यु का पल सामने आ जाता है तो वह कहने के लिए जिसे आप कहना चाहते हैं, पर्याप्त जागरूकता होनी चाहिए। इस संस्कृति में किसी के मरते समय हमेशा ‘ऊं नम: शिवाय’ या ‘राम नाम सत्य है’ बोला जाता है, ताकि मरने वाला अपने आखिरी पल में भगवान का नाम ले या किसी तरह जागरूक हो जाए। आपको कुछ कहने की भी जरूरत नहीं है। आप जिस पल जीवन के एक आयाम से दूसरे आयाम में जाते हैं  उस समय अगर आप सिर्फ अपनी जागरूकता कायम रख पाएं, तो आपको मुक्ति मिल सकती है। मगर उस पल में जागरूक होने के लिए आपको जीवन भर जागरूकता का अभ्यास करना होगा। या आपको किसी ऐसे व्यक्ति की मौजूदगी में होना चाहिए  , जो आपके लिए ऐसा कर सके। इसी संदर्भ में कृष्ण ने कहा था कि अगर मृत्यु के समय आप उनके बारे में ध्यान करें तो वे आकर आपकी मृत्यु को आसान बना देंगे।

यहां वह एक आंतरिक हकीकत की बात कर रहे थे, यानि परम तत्व को पाने का योग। परम तत्व को पाने के लिए अगर आप सही चीजें करें तो सौ फिसदी पक्का है कि आपकी  कोशिश कामयाब होगी क्योंकि इसमें एकमात्र तत्व आप होते हैं। इसमें कोई और नहीं सिर्फ आप होते हैं। इसलिए वह पूरे यकीन से कह सकते थे, ‘आपका ध्यान रखूंगा’। वे जीवन के बाहरी वास्तविकताओं के बारे में ऐसी बात नहीं कह सकते थे, क्योंकि बाहरी हकीकतें तमाम चीजों पर आधारित होती हैं।

अगर आप भौतिक से परे जाने के समय अपनी जागरूकता बरकरार रख सकते हैं, तो आप परम तत्व को पा सकते हैं। यही वजह है कि ज्यादातर लोगों के लिए आत्मज्ञान प्राप्ति का पल ही शरीर त्यागने का भी पल बन जाता है। जब आप शरीर को छोड़ते हैं उस समय यदि आप जागरूक हो जाएं, तो भी शरीर को तो आप त्यागेंगे ही। लेकिन यदि अपने शरीर को छोडऩे का समय अभी नहीं आया है, और आपकी जागरूकता ऐसे चरम पर पहुंच जाती है, जहां आप और आपका शरीर साफ तौर पर अलग-अलग हो जाते हैं - तो इस स्थिति में आप अपने शरीर में बने नहीं रह पाएंगे - जब तक कि आपके पास कुछ ऐसा सिस्टम न हो जो यह सुनिश्चित कर सकें कि आप अपने शरीर से फिसल न जाएं।

मसलन, समयमा में कई बार लोग शरीर को छोडऩे के कगार पर होते हैं। भाव स्पंदन में भी कई बार ऐसा होता है, जब लोग वाकई छोर पर खड़े होते हैं। चूंकि कुछ नियंत्रण तंत्र बना दिए गए हैं, इसलिए यह सुरक्षित होता है। यदि ये नियंत्रण तंत्र नहीं होते, तो निश्चित रूप से वे शरीर से अलग हो जाते। यह उनके लिए एक सौभाग्य होता, मगर ईशा के लिए अच्छा नहीं होता, इसलिए हम उन्हें जाने नहीं देते। वास्तव में उन्हें जाने न देना एक अपराध है, लेकिन यदि हम उन्हें जाने देंगे तो समाज हमें अपराधी ठहराएगा। इसलिए हम बस वह कर रहे हैं, जो सामाजिक रूप से स्वीकार्य है, न कि जो सही है।

मृत्यु के पल के विचार आपके साथ रहते हैं

एक और पहलू यह है कि यदि मृत्यु के समय आपके दिमाग में कोई विचार है तो वह आपके अगले जन्म की प्रकृति का हिस्सा बन जाता है। इसलिए हमें किसी की मृत्यु की प्रक्रिया के समय शांति और खुशहाली का माहौल बनाना चाहिए क्योंकि मरने वाले के दिमाग और भावनाओं में जो भी चीज प्रधान होती है, वह उनके भावी जन्मों की विशेषता बन जाती है।

अगर आप फिर से जन्म लेना चाहते हैं तो निश्चित रूप से आखिरी पल की विशेषता आपके अगले जन्मों में शामिल होगी। लेकिन यदि आप परम तत्व में विलीन होना चाहते हैं, यदि आप उसमें समा जाना चाहते हैं, तो आपका पुनर्जन्म नहीं होगा।
इसी वजह से इस संस्कृति में हमेशा से यह कहा गया है कि आपको अपने परिवार के बीच नहीं मरना चाहिए। लोग अपनी मृत्यु के समय वन चले जाते थे, जिसे वानप्रस्थ कहा गया है। राजा धृतराष्ट्र, उनकी रानी गांधारी और कुंती भी कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद वन चले गए थे। उनके साथ सहायक के रूप में सिर्फ संजय थे। वे सब बूढ़े हो चुके थे इसलिए वे महल में रहने की बजाय मरने के लिए वन चले गए। हालांकि धृतराष्ट्र नेत्रहीन और कई रूपों में मूर्ख थे, मगर फिर भी उनमें इतनी जागरूकता थी, जो आजकल दुनिया में देखने को नहीं मिलती। कुंती ने अपने जीवन में बहुत मुश्किलें झेली थीं। अब उसके बच्चे राजा बन चुके थे, तो वह अब महलों में आनंद से रह सकती थी, मगर उसने भी वन में जाकर शरीर छोडऩे का फैसला किया।

वे वन में चले गए और वहां एक दुर्गम पहाड़ी के ऊपर चढऩे लगे। एक जगह जंगल में आग लगी हुई थी। वे लोग बूढ़े थे, इसलिए न तो भाग सकते थे, न ही जंगल की आग से बच सकते थे, तो उन्होंने खुद को अग्नि को समर्पित करने का फैसला किया। धृतराष्ट्र ने संजय से कहा, 'तुमने अब तक मेरी बहुत सेवा की, मगर तुम्हारी आयु अभी कम है, तुम वापस लौट जाओ। हम तीनों खुद को अग्नि को समर्पित कर देंगे।’ संजय ने उन्हें छोड़कर जाने से इनकार कर दिया और चारो जंगल की आग में जल गए।

जब आप परिवार के बीच मरते हैं, तो आप जुड़ाव की भावना को मन में लेकर मरेंगे जो भविष्य में आपके लिए खुशहाली नहीं लाएगी। आपको पता ही होगा कि हमारे देश में आज भी लोग मरने के लिए काशी जाते हैं, क्योंकि वह एक पवित्र जगह है। वे शिव की कृपा की छाया में मरना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि उनकी मृत्यु के समय उनका परिवार अपनी भावनाएं उनके सामने प्रदर्शित करे।

मृत्यु एकमात्र ऐसी चीज है, जो जीवन में निश्चित है। अगर आपने अपना जीवन अच्छी तरह जिया है, तो मृत्यु कोई बुरी चीज नहीं है। यदि आपने हर पल हिचक, भय, नफरत, और गुस्से के बीच जीवन बिताया है, तो इसका मतलब है कि आपने कभी जीवन नहीं जिया। मृत्यु के समय, अगर आप जीना चाहते हैं तो यह कोई अच्छी बात नहीं है। आखिर, मृत्यु है क्या? आप शरीर को छोड़ रहे हैं। यह शरीर एक ऋण है जो आपने धरती मां से लिया है। मान लीजिए, आपने बैंक से एक करोड़ रुपये का ऋण लिया और अगले पचास सालों में आपने इस एक करोड़ को दस अरब बना लिया, तब यदि आपका बैंकर ऋण वापस मांगेगा तो आप खुशी-खुशी ब्याज सहित उसका ऋण चुका देंगे। उसे दावत और उपहार देंगे। मगर मान लीजिए आपने वे एक करोड़ रुपये उड़ा दिए और सब कुछ गंवा दिया तो बैंकर के आने पर आप आतंकित हो जाएंगे। आप छिपने की कोशिश करेंगे। बहुत सी चालें चलने की कोशिश करेंगे। इसी तरह धरती मां ने आपको यह ऋण दिया। यदि आपने इसे एक आनंदमय जीवन में बदल दिया, अगर आपने वाकई उसका पूरा इस्तेमाल किया और अपने अंदर पूरे मिठास के साथ जीवन जिया, तो जब धरती मां कहती है कि ऋण चुकाने का समय हो गया तो आप खुशी-खुशी उसे चुका देंगे। और उसका कोई ब्याज नहीं होता। जो खुशी-खुशी ऋण चुकाता है, उसके लिए जीवन समाप्त हो जाता है क्योंकि जब आप आनंदित होते हैं, तो आपके अंदर कुदरती तौर पर जागरूकता आती है। जब आप जागरूक होते हैं, तो आप मुक्ति के रास्ते पर होते हैं। अगर आप फिर से जन्म लेना चाहते हैं तो निश्चित रूप से आखिरी पल की विशेषता आपके अगले जन्मों में शामिल होगी। लेकिन यदि आप परम तत्व में विलीन होना चाहते हैं, यदि आप उसमें समा जाना चाहते हैं, तो आपका पुनर्जन्म नहीं होगा। लोग मुझसे कहते हैं, 'सद्‌गुरु इन नकारात्मक शब्दों का इस्तेमाल मत कीजिए, इससे हमें डर लगता है। क्या हम विलीन होकर शून्य हो जाएंगे?’ तो हम यह कह सकते हैं, 'जब आप मुक्ति पा लेते हैं, तो आप सब कुछ हो जाते हैं, हर चीज में शामिल हो जाते हैं।’ जब शिव की बात आती है, तो हम शून्यता की बात करते हैं। लेकिन चूंकि लीला का संबंध कृष्ण से है, तो हम आपके साथ खुशनुमा बातें करना चाहते हैं। आप सब कुछ बन जाएंगे। आप ईश्वर बन जाएंगे। क्या यह सुनने में बेहतर लगता है?