हम में से कई सारे लोगों को मिठाइयां अत्यंत प्रिय हैं। ऐसी क्या ख़ास बात है मिठाइयों में कि मिठाई खाने का एहसास सुखद होता है? और अगर यह आदत एक मजबूरी बन जाए तो क्या इससे बचने का कोई रास्ता है?

प्रश्‍न:

सद्गुरु, इतनी साधना करने के बाद भी, मैं मीठा खाने के बारे में सोचने से खुद को रोक नहीं पाती हूं। और एक बार जब मैं खाना शुरू करती हूं, तो मैं खुद को काबू नहीं कर पाती। ऐसा मेरे साथ क्यों हो रहा है, क्या यह आदत धीरे-धीरे चली जाएगी?

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सद्‌गुरु:

ओहो ‘मीठी’ कमजोरी! हम यहां जो योग के अलग-अलग प्रकारों का अभ्यास करते हैं उसके जरिए हमारी कोशिश इस शरीर की रासायनिक संरचना बदलने की होती है। मूल रूप से आप एक रासायनिक शोरबा या सूप हैं, बस देखने वाली बात इतनी है कि आप एक महान सूप हैं या घटिया सूप हैं। हर दिन वक्त के साथ-साथ यह सूप लगातार खुद को बदल रहा है, इसकी रासायनिक संरचना लगातार बदल रही है।

तो आप भीतर से वाकई बेहद मधुर बन जाइये, फिर मीठे के प्रति आपका आकर्षण धीरे-धीरे कम होने लगेगा। मैं ‘मधुर’ शब्द का इस्तेमाल दोनों ही तरह से कर रहा हूं- सिर्फ मीठे के तौर पर ही नहीं, बल्कि जब कोई चीज सुखद हो।
इस बदलाव में चंद्रमा की स्थिति, आपके आसपास के लोग और आपके जीवन में घटने वाली घटनाओं का योगदान होता है। इस पल आप एक शानदार सूप होते हैं, और अगले ही पल आप एक खराब सूप या भयभीत सूप बन जाते हैं। लेकिन उसके अगले ही पल में आप फिर एक खुशनुमा और आनंद से भरे सूप नजर आते हैं।

बहरहाल, आपकी ये जो भी प्रवृत्तियां हैं, उनका स्रोत वंश या परिवार से आने वाले गुण हो सकते हैं, या उनका स्रोत कार्मिक भी हो सकता है। या फिर यह भी हो सकता है वो मिठाईयां वाकई लाजवाब हों। ये जो वंश से आने वाले कारण अथवा कार्मिक कारण है, वे हमारे सिस्टम में एक खास तरह की रासायनिक संरचना तैयार करते हैं और जब यह रसायन अपने आप में मजबूत होने लगता है, तो यह आपके लिए एक मजबूरी बन जाती है। आपको विभिन्न किस्मों के योग, खासकर हठयोग व क्रिया कराने के पीछे मकसद ही आपके भीतर एक खास तरह का रसायन तैयार करना है, जो अपने आप में बेहद मधुर है। यह आनंद से भरा है। ये योग करने के बाद अगर आप बस सहज रूप से बैठ जाते हैं, तो आपका पूरा व्यक्तित्व इतना मधुर हो उठता है, कि फिर आपको किसी और मीठे के बारे में सोचते ही नहीं।

हर चीज का असर आप पर इसी हिसाब से होता है कि फिल्हाल आप कैसे हैं? अगर आप अपना हाथ पानी में डालते हैं तो आपको वह पानी ठंढा लगेगा या गर्म, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपके शरीर का तापमान कैसा है। अगर आप खुद गर्म हैं तो वह पानी आपको ठंढा लगेगा और अगर आप ठंडे हैं तो वही पानी आपको गर्म लगेगा। मीठे के साथ भी यही चीज लागू होती है। तो आप भीतर से वाकई बेहद मधुर बन जाइये, फिर मीठे के प्रति आपका आकर्षण धीरे-धीरे कम होने लगेगा। मैं ‘मधुर’ शब्द का इस्तेमाल दोनों ही तरह से कर रहा हूं- सिर्फ मीठे के तौर पर ही नहीं, बल्कि जब कोई चीज सुखद हो। अगर आप खुद अपने भीतर इतने आनंदित हों कि आपके लिए दुनिया की सबसे आनंददायक चीज आप खुद हों, तो आपको बाकी सभी चीजें सिर्फ ठीक-ठीक ही लगती हैं। तब आपको उन्हें छोड़ना नहीं पड़ता, लेकिन उनके प्रति आपकी बाध्यता या खिंचाव अपने आप कम हो जाता है।

अब यह बाध्याता या खिंचाव चाहे किसी खाने पीने वाली चीज के प्रति भी हो सकती है, या किसी खास तरह के काम या गतिविधि या किसी व्यक्ति विशेष के प्रति भी हो सकती है। इससे कोई फर्क नही पड़ता कि वह कारण क्या है। यहां सवाल नैतिकता का या सही गलत का नहीं है। यहां सवाल सिर्फ आजादी या बंधन, दासता और मुक्ति का है।

बहरहाल, आपकी ये जो भी प्रवृत्तियां हैं, उनका स्रोत वंश या परिवार से आने वाले गुण हो सकते हैं, या उनका स्रोत कार्मिक भी हो सकता है। या फिर यह भी हो सकता है वो मिठाईयां वाकई लाजवाब हों।
किसी भी तरह की बाध्यता का मतलब है कि आप गुलामी में बंधे हैं। इंसान के जीवन में जो भी हो, वह उसकी पूरी चेतना में होना चाहिए। अगर आप पूरी सजगता के साथ किसी दिन मीठा खाने का चयन करते हैं, तो यह आपकी पसंद है। लेकिन अगर आपके भीतर की कोई चीज आपको मीठा खाने को विवश कर रही है तो हमें उस तरफ थोड़ा ध्यान देना होगा। हमें मीठे की तरफ नहीं, बल्कि अपने ऊपर ध्यान देना होगा। दरअसल, समस्या मीठा नहीं है, बल्कि समस्या यह है कि फिलहाल आपके भीतर के रसायन आपको मजबूर कर रहे हैं, जो किसी भी तरह से स्थिर नहीं है। अगर आप किसी परिस्थिति से गुजर रहे हैं तो सबसे अच्छा होगा कि आप उसके प्रति बस सजग हो जाएं और सिर्फ अपनी साधना करें। यह सब अपने आप ठीक हो जाएगा। अगर आप बहुत ज्यादा मीठे की समस्या की तरफ ध्यान देंगे तो यह अपने आप में ‘बंदर की समस्या’ वाली बात हो जाएगी। अगर आप कहें कि आप बंदरों के बारे में सोचना नहीं चाहते, तो आपके विचारों में सिर्फ बंदर ही आएंगे।

इसलिए मिठाई से बचने की कोशिश मत कीजिए और ना ही इसे एक बड़ा मुद्दा बनाएं। अगर आप कुछ खा भी रहे हैं तो ठीक है। इसमें कोई हर्ज नहीं। बस इतना कीजिए कि इसे तय कर दीजिए कि आप दो वक्त के भोजन के बीच में कुछ नहीं खाएंगे। खाने के सामने जब आप औरों के सामने हैं, तो आप जितना खाना चाहते हैं, उतना खाएं। असली दिक्क्त अकेले में खाने की है। तो आप अकेले में खाने की आदत छोड़िए, मीठे के प्रति सारी मजबूरी और खिंचाव अपने आप कम हो जाएगा।

Love & Grace