गीता में कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित किया जिसको लेकर अकसर लोगों के मन में सवाल उठते हैं कि क्या कृष्ण युद्ध चाहते थे? क्या युद्ध उचित है?

 

प्रश्‍न: गीता में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि एक क्षत्रिय होने के नाते जाकर लड़ना उनका   कर्तव्य है। मेरे मन में हमेशा से यह बात उठती रही है कि क्या सिर्फ जाति व्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए ऐसा किया गया?

 

सद्‌गुरु:  आज हमारी समझ, हमारे अनुभव में जाति व्यवस्था एक माध्यम बन गया है - शोषण और भेदभाव का। मगर जब यह व्यवस्था बनाई गई थी, तब यह कोई भेदभाव पैदा करने का साधन  नहीं था। इसका मकसद समाज में ऐसी व्यवस्था लाना था ताकि समाज सुचारू रूप से चल सके। लोगों के अलग-अलग समूहों के लिए अलग-अलग कार्य हों ताकि समाज के हर पहलू को संभाला जा सके और हर कोई वह काम करे जिसे किए जाने की जरूरत हो।

कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध लड़ने को कहा - क्या था कारण?

एक क्षत्रिय का कर्तव्य दूसरे लोगों की रक्षा करना था क्योंकि आम लोगों को सुरक्षा की जरूरत थी और उनके पास हथियार नहीं होते थे। एक क्षत्रिय का युद्ध से इंकार करना वैसा ही था, जैसे एक किसान बीज बोने से इंकार कर दे, जैसे एक वैश्य व्यापार करने से मना कर दे या एक ब्राह्मण विद्या देने से इंकार कर दे। हमारा जो भी काम होगा, अगर हम उससे पीछे हटेंगे, तो समाज का क्या होगा? इसी संदर्भ में कृष्ण ने कहा कि क्षत्रिय के रूप में तुम्हें लड़ना होगा।

 

कृष्ण लंबे समय से इस महायुद्ध को टालने की कोशिश कर रहे थे, मगर हालात ऐसे हो गए जब हर कोई युद्ध के मैदान पर पहुंच चुका था। अर्जुन के मन में तब भी यह मूर्खतापूर्ण विचार उठ रहा था कि वह पीछे हट सकता है, युद्ध से भाग सकता है और शांति से जंगल में जीवन बिता सकता है। जबकि अगर वह ऐसा करता तो कौरव उसके पीछे जा सकते थे, जंगल को जला सकते थे और उसे मार सकते थे। और सिर्फ उसे ही नहीं, वे उसकी पूरी सेना का संहार कर सकते थे, जो उसके मैदान से पीछे हट जाने पर नेतृत्व विहीन हो जाती।

 

क्षत्रिय किसी जाति का नाम नहीं है, यह प्रशासन और सेना में काम करने वाले लोगों का वर्ग था। उन्हें समाज का संतुलन बनाए रखने का काम करना पड़ता था। भारत आम तौर पर एक शांतिपूर्ण देश रहा है। वह कभी आक्रामक नहीं रहा है। उसे कभी अपने राज्य-सीमा के विस्तार की महत्वाकांक्षा नहीं रही है। उन्होंने तो अपने देश के हिस्से भी काटकर दे दिए। उन्हें शासनकला की जानकारी नहीं थी। इसी वजह से देश आज तक भुगत रहा है। यदि 1947 में कृष्ण होते तो वह बिल्कुल अलग तरीके से इस मामले को सुलझाते।

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आज यह कोशिश करना कि कुछ लोग नहीं मारे जाएं और अगले 60 सालों तक देश को खून के आंसू रूलाना – कहीं ज्यादा बड़ी बेवकूफी है। लोग अपनी भावनाओं, सिद्धांतों और नैतिकताओं में अपना विवेक खो बैठे। उनके पास यह देखने की दूरदर्शिता नहीं थी कि उनकी इस हरकत का आने वाले 50-100 सालों में क्या असर पड़ेगा। चाहे परिवार की बात हो, या देश की, जब लोग थोड़ी सी अप्रियता से बचने के लिए ऐसी दृष्टि नहीं रखते, तो उन्हें जिंदगी भर की मुसीबत झेलनी पड़ती है। अगर आप किसी मामले को उस तरह सुलझाएं, जिस तरह उसे सुलझाया जाना चाहिए, तो उस समय भले ही वह निर्मम लगे, मगर बाद में लोगों को उससे लाभ होगा।

 

इसलिए कृष्ण ने कहा कि अगर आप अभी कुछ नहीं करेंगे, तो यह अकर्मण्यता नुकसानदायक साबित होगी। वह उसमें शामिल सभी लोगों को भी अच्छी तरह जानते थे और उन्होंने बहुत चतुराई से सभी को काबू में किया। मैं आपको एक उदाहरण देता हूं।

कृष्ण की युद्ध नीति

सम्राट जरासंघ एक बहादुर योद्धा और एक प्रतिभाशाली व्यक्ति था। वह 45 सालों से अपने राज्य पर शासन कर रहा था और उसने कई लड़ाइयां जीतते हुए अपने राज्य का विस्तार किया था। मगर उसकी महत्वाकांक्षा समाप्त नहीं हुई थी। वह यह पक्का करना चाहता था कि उसके बच्चे और उनके बच्चे उस रियासत की सीमा को और आगे बढ़ाते रहें, जिसे उसने खड़ा किया था। वह पूरी निर्ममता से इस पर अमल करता था।

यदि 1947 में कृष्ण होते तो वह बिल्कुल अलग तरीके से इस मामले को सुलझाते। आज यह कोशिश करना कि कुछ लोग नहीं मारे जाएं और अगले 60 सालों तक देश को खून के आंसू रूलाना – कहीं ज्यादा बड़ी बेवकूफी है। लोग अपनी भावनाओं, सिद्धांतों और नैतिकताओं में अपना विवेक खो बैठे।

उसने अपनी दो बेटियों की शादी कंस से की क्योंकि वह उसे एक शक्तिशाली सहयोगी की तरह देखता था। उसे लगा कि ऐसा गठबंधन बनाने पर, भारत वर्ष का उत्तरी हिस्सा उसके अधीन हो जाएगा। उसे आर्य मर्यादा और धर्म का कोई ख्याल नहीं था।

जब कृष्ण ने कंस को मार डाला, तो यह सारी रणनीति बिगड़ गई। कुछ युद्ध लड़ने और कुछ और छोटे-छोटे राज्यों को मिलाने के बाद, जरासंध ने मथुरा को जीतने की योजना बनाई। मगर उस समय कृष्ण मथुरा के सभी लोगों के साथ मथुरा से कूच कर गए। गुस्से और हताशा में जरासंध ने खाली शहर में आग लगा दी। फिर वह अपने मित्र शिशुपाल की शादी रुक्मिणी से कराना चाहता था ताकि रुक्मिणी का भाई रुक्मी जो बहुत महत्वाकांक्षी युवक था और उसके पास एक शक्तिशाली सेना थी, वह उसके साथ आ जाए।

जरासंध बिहार से इतनी दूर गुजरात सिर्फ यह पक्का करने आया कि स्वयंवर में कोई गड़बड़ न हो। मगर वहां उसकी नाक के नीचे से कृष्ण रुक्मिणी को भगा कर ले गए। और जब उसने गोमांतक में कृष्ण को पकड़ने की कोशिश की तो कृष्ण ने उसे हरा दिया और उसे जीवनदान देते हुए शर्मिंदा कर दिया। जरासंध जैसे योद्धा के लिए इससे बदतर कुछ नहीं था कि एक ग्वाला उसे जीवनदान दे।  इससे बेहतर उसके लिए मर जाना था।

इसके बाद उसने अपने पौत्र की शादी द्रौपदी से करवाने की युक्ति सोची। इस तरह द्रौपदी के पिता राजा द्रुपद उसके सहयोगी बन जाते, जिनके पास एक विशाल सेना थी, और इस तरह वह भारत वर्ष के एक दूसरे इलाके पर नियंत्रण पा सकता था। बहुत कम लोग तीरंदाजी की उस बहुत मुश्किल कसौटी पर खरे उतर सकते थे, जिसे द्रुपद ने तय किया था। ये लोग थे, द्रोणाचार्य, दुर्योधन, अर्जुन, खुद जरासंध और शायद कृपाचार्य और अश्वत्थामा। मगर द्रोण और कृपाचार्य बूढ़े हो चुके थे और ब्राह्मण होने के नाते वे इसमें शामिल नहीं होते। कर्ण का वंश कुलीन नहीं था, इसलिए वह इस स्वयंवर में भाग नहीं ले सकता था, यहां जाति व्यवस्था थी।

जरासंध ने आकर उस जगह डेरा डाल दिया, जहां स्वयंवर होना था। वह जानता था कि उसका पौत्र इस तीरंदाजी के इम्तिहान में नहीं जीत सकता है, मगर वह खुद इसे जीत सकता था। कृष्ण ने हालात को ध्यान से देखा। उनका इरादा यह था कि द्रौपदी दुर्योधन से विवाह न करे। वह भी दुर्योधन से विवाह नहीं करना चाहती थी। मगर यदि दुर्योधन इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता, तो द्रौपदी को उससे विवाह करना पड़ता। दुर्योधन के लिए काम करने वाले द्रोणाचार्य द्रौपदी को भावी महारानी के रूप में नहीं देखना चाहते थे क्योंकि उन्होंने दुर्योधन की पहली पत्नी भानुमती से वादा किया था कि वह द्रौपदी को महारानी नहीं बनने देंगे।

जरासंध के शिविर में बहुत सख्त पहरा था। आधी रात का समय था, तभी दो लोग शिविर में पहुंचे, जिन्होंने अपने चेहरे ढक रखे थे। पहरेदारों ने उन्हें रोक दिया। उनमें से एक व्यक्ति बोला, ‘हम सम्राट से मिलना चाहते हैं।’ पहरेदार बोला, ‘क्या तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है? आधी रात को तुम सम्राट से मिलना चाहते हो? ऐसा नहीं हो सकता। यहां से चले जाओ।’ वह व्यक्ति बोला, ‘अगर तुमने मुझे सम्राट से नहीं मिलने दिया, तो तुम मरोगे और तुम्हारे सम्राट को मुझसे न मिल पाने का जिंदगी भर अफसोस होगा।’ पहरेदार बोला, ‘तुम कुछ ज्यादा ही दु:साहसी लग रहे हो। वापस जाओ, सुबह आना।’ फिर उस व्यक्ति ने पूछा, ‘यहां की सुरक्षा की जिम्मेदारी किस राजकुमार के पास है? कम से कम उसे जगाओ।’ पहरेदार बोला, ‘नहीं। हम आधी रात को उन्हें नहीं जगा सकते।’ फिर यह व्यक्ति बोला, ‘अगर वह आज नहीं जगता, तो कल भी नहीं जाग पाएगा। जाकर अभी उसे उठाओ।’ फिर पहरेदारों ने जरासंध के एक पौत्र को जगाया, जिसके जिम्मे वहां की सुरक्षा थी। उसने आकर पूछा, ‘तुम कौन हो? इस व्यक्ति ने अपने चेहरे से कपड़ा हटाया और बोला, ‘मैं वासुदेव कृष्ण हूं।’ जरासंध का पौत्र हक्का-बक्का रह गया। कृष्ण तो उनका कट्टर दुश्मन था। वे उसकी तलाश में देश भर घूमे थे मगर उसे नहीं पकड़ पाए थे। और आज आधी रात को सिर्फ एक और शख्स के साथ वह उनके शिविर में आ पहुंचा था। वे चाहते थे तो अभी उसे मार सकते थे।

जरासंध के पौत्र को यकीन नहीं आ रहा था। मगर फिर उसने मुकुट और मोरपंख देखा और फिर सोचा, ‘अरे यह तो वाकई वही उपद्रवी ग्वाला है।’ फिर उसने नीला रंग देखा, ‘अरे यह तो बिल्कुल वही है।’ उसने पूछा, ‘तुम क्या चाहते हो?’ कृष्ण बोले, ‘मैं जरासंध से बात करना चाहता हूं। अगर तुम अभी उसे नहीं जगाते, तो बस एक संदेश दे दो कि मैं यहां उसका जीवन बचाने आया हूं। अगर मैं अभी उससे नहीं मिलता, तो मैं फिर कुछ नहीं कर पाउंगा। अगर फिर भी तुम उसे नहीं जगाना चाहते, तो मैं वापस चला जाता हूं। सब कुछ तुम्हारे ऊपर है।’ युवक थोड़ा परेशान हो गया, फिर बोला, ‘रुको।’ उसने जाकर जरासंध को जगाया जो उस समय एक 75 साल का बुजुर्ग था मगर अब भी काफी तंदुरुस्त और हट्टा-कट्ठा था। वह एक योद्धा था। उसे सूचना दी गई, ‘कृष्ण आपसे मिलने आए हैं।’ जरासंध को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ, ‘क्या? वह आधी रात को मेरे शिविर में मुझसे मिलने आया है? उसकी इतनी हिम्मत?’ उसके दिमाग में तुरंत आया, ‘क्या हम अभी उसे मार डालें?’ फिर उसके पौत्र ने उसे बताया कि कृष्ण ने उससे क्या कहा। जरासंध को वे सभी घटनाएं याद आ गईं, जब कृष्ण उस पर भारी पड़े थे। इसलिए उसने सोचा कि निश्चित रूप से कृष्ण इतने मूर्ख नहीं हैं कि यूं ही वहां मौत के मुंह में आ जाएं। जरूर कुछ और बात होगी। इसलिए वह उनसे मिलने के लिए तैयार हो गया।

कृष्ण अंदर आए तो जरासंध बोला, ‘तुम इस तरह यहां आए हो, जैसे कोई मेमना बाघ की गुफा में आने की गुस्ताखी करता है, मगर ऐसा मेमना अगले दिन का सूरज नहीं देख पाता।’ कृष्ण ने वे सारी घटनाएं गिनाईं, जब उन्होंने जरासंध को अपमानित किया था। वे बोले, ‘इतनी सारी घटनाओं के बावजूद आपको लगता है कि मैं ऐसा मेमना हूं।’ जरासंध बोला, ‘ठीक है, ठीक है, बताओ।

पहरेदारों ने जरासंध के एक पौत्र को जगाया, जिसके जिम्मे वहां की सुरक्षा थी। उसने आकर पूछा, ‘तुम कौन हो? इस व्यक्ति ने अपने चेहरे से कपड़ा हटाया और बोला, ‘मैं वासुदेव कृष्ण हूं।’ जरासंध का पौत्र हक्का-बक्का रह गया। कृष्ण तो उनका कट्टर दुश्मन था।
क्या बात करने आए हो?’ कृष्ण ने समझाया, ‘आप द्रौपदी के स्वयंवर में आए हैं। हर किसी को पता है कि द्रौपदी से विवाह का मतलब द्रुपद से संबंध बनाना है। द्रुपद से संबंध का मतलब एक विशाल सेना से संबंध है। इसी वजह से इतने सारे राजा यहां जुटे हैं। सबसे बढ़कर द्रुपद की एक नेक इंसान के रूप में बहुत इज्जत है, जिससे आपकी प्रतिष्ठा और ताकत बढ़ सकती है। इसलिए आपके यहां आने का मकसद मेरे सामने बिल्कुल साफ है। आपका पौत्र यकीनन तीरंदाजी का इम्तिहान पास नहीं कर सकता, मगर आप कर सकते हैं।’ जरासंध बोला, ‘बिल्कुल। मैं जीतूंगा।’

कृष्ण बोले, ‘कल्पना कीजिए। अगर इतने सारे पुत्रों और पौत्रों वाले 75 वर्षीय आप अगर एक 18 वर्षीय युवती के लिए इस मुकाबले में शामिल होते हैं, तो आप उपहास के पात्र बन जाएंगे। चाहे आप यह मुकाबला जीत भी लें, लेकिन अगर कोई युवक भी इस मुकाबले को जीत लेता है, तो आपको उससे लड़ना होगा। इसमें आप मारे जा सकते हैं क्योंकि जो इंसान इस मुकाबले को जीतने के काबिल होगा, वह आपको मारने में भी सक्षम हो सकता है। अगर दुर्योधन ने यह मुकाबला जीता, तो वह आसानी से आपको मार सकता है। आप दोनों एक-दूसरे की टक्कर के हैं, मगर वह युवा है और आप बूढ़े। और अगर संयोग से आप मुकाबला हार गए तो आपका साम्राज्य बर्बाद हो जाएगा। कोई राजा आगे आपके साथ जुड़ना नहीं चाहेगा। मुझे यकीन है कि आप इतने बुद्धिमान होंगे कि ऐसा कदम नहीं उठाएंगे।’ जरासंध को बात समझ में आ गई।

कृष्ण आगे कहते रहे, ‘इसलिए निश्चित रूप से आप यहां मुकाबले में भाग लेने नहीं आए हैं। आप यहां उस लड़की का अपहरण करने आए हैं। ऐसा आप सिर्फ दो जगह कर सकते हैं। एक जगह वह है, जब वह दूसरी राजकुमारियों के साथ मंदिर आएगी। दूसरी जगह - जब वह विवाह कक्ष में प्रवेश करेगी।’ उन्होंने बताया, ‘इन दोनों जगहों पर मेरे सबसे धुरंधर लोग तैनात हैं। अगर आपका रथ निर्धारित मार्ग से थोड़ा भी भटका, तो तत्काल आपका सिर धड़ से अलग हो जाएगा। चाहे जिस तरह से भी, अगर आप अपनी किसी योजना पर अमल करने की कोशिश करेंगे, तो आपकी मौत तय है। आपके लिए सबसे अच्छा यही है कि आप द्रुपद को जो भी बढ़िया उपहार दे सकते हैं, देकर पूरी इज्जत से यहां से चले जाएं।’

जरासंध दहाड़ा, ‘तुम मुझे यह बताने वाले कौन होते हो कि मुझे क्या करना चाहिए? मैं मगध का सम्राट हूं, तुम सिर्फ एक ग्वाले हो।’ कृष्ण बोले, ‘इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कौन हैं और मैं कौन हूं। चाहे आप एक महान राजा हों, इस देश और संस्कृति पर मेरा असर आपसे कहीं ज्यादा है। लड़ने तथा लोगों को इकट्ठा करने की मेरी काबिलियत भी आपसे कहीं ज्यादा है। जैसा कि मैंने कहा, कल सुबह अगर आपका रथ अपने निर्धारित रास्ते से जरा सा भी इधर-उधर गया, तो आपका सिर धड़ से अलग हो जाएगा। अब यह आपके ऊपर है कि आप क्या चुनते हैं।’

जब कृष्ण वहां से जाने लगे, तो जरासंध ने पूछा, ‘अगर मैं तुम्हें यहीं मार डालूं तो?’ कृष्ण बोले, ‘मैंने सबसे शूरवीर 1000 यादव योद्धा महत्वपूर्ण जगहों पर तैनात कर दिए हैं। यही नहीं, आर्यावर्त के कानून के मुताबिक यदि कोई स्वयंवर में शामिल होने के लिए आने वाले किसी व्यक्ति को जान से मारता है, तो सभी राजा यह सुनिश्चित करते हैं कि उस हत्यारे को मृत्यु दंड मिले क्योंकि उसने मूल नियम तोड़ा है। स्वयंवर में मुकाबला तो होता है, मगर आखिरकार लड़की का फैसला ही अंतिम होता है। आर्यावर्त के सभी राजकुमार और राजा साथ मिलकर आपकी रियासत को जला डालेंगे।’ जरासंध को पता था कि यह सच है। हालांकि वह बहुत गुस्से में था, मगर उसका विवेक और बुद्धि इतनी काम कर रही थी कि वह इन बातों पर विचार कर पाता। अगली सुबह वह द्रुपद के पास गया, उन्हें बहुमूल्य उपहार दिए और शालीनतापूर्वक वहां से चला गया।

तो कृष्ण इस तरह के इंसान थे। उन्होंने युद्ध टालने की हर संभव कोशिश की, मगर जब इसके बावजूद युद्ध की नौबत आई, तो पीछे हटना कोई समझदारी नहीं थी। वह एक भयानक युद्ध था, जहां लगभग हर कोई मारा जाने वाला था, लेकिन यदि वे पीछे हटते, तो भी वे मारे जाते। कृष्ण ने यही समझाने की कोशिश की।