जहां कुछ साल पहले हमारे देश में मानसिक रोगों के बहुत कम रोगी हुआ करते थे, वहीँ आज इनकी संख्या बढ़ रही है। मानसिक रोगों के बारे में विशेष बात यह है कि यह तय कर पाना मुश्किल है कि कोई व्यक्ति सच में मानसिक रोग से पीड़ित है या फिर केवल उसकी आदतों के कारण उसका बर्ताव कष्टदायी बन रहा है...ऐसे में कैसे इन रोगों का सामना किया जा सकता है?... समझा रहे हैं सद्‌गुरु...

प्रश्‍न:सद्‌गुरु, कुछ साल पहले एक सत्संग में आपने जिक्र किया था कि मानव पीड़ा का सबसे बड़ कारण मानसिक रोग हैं। आखिर एक इंसान के अचानक मानसिक रूप से अस्वस्थ होने की वजह क्या होती है? क्या यह संभव है कि मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति पूरी तरह से ठीक हो जाए और उसकी दवाई छूट जाए?

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सद्‌गुरु:

अगर आपने इसे देखा है तो आप समझ सकते हैं कि इससे बड़ी कोई पीड़ा नहीं है। दरअसल मानव मस्तिष्क में अपार संभावनाए होती हैं। अगर ये संभावनाए आपके अनुकूल काम करती हैं तो आपका जीवन खुशियों से भर उठता है। लेकिन अगर ये आपके खिलाफ काम करने लगीं तो फिर आपको कोई नहीं बचा सकता। दरअसल, इस स्थिति में आपकी पीड़ा का कारण कहीं बाहर से नहीं आ रहा। अगर आपकी पीड़ा का कारण कहीं बाहर से मसलन आपके पड़ोस, आपकी सास या आपके बॉस की तरफ से आ रहा होता तो आप उससे भाग सकते थे। वे कुछ करते, जिसके बदले में आप एक खास तरह से उस पर प्रतिक्रिया देते। लेकिन आप एक ऐसी जगह या हालात में है, जहां बिना किसी के कुछ किए भी अपने आप तकलीफें आ रही हैं तो यह अपने आप में एक मनोवैज्ञानिक स्थिति होगी।

सवाल है कि कोई व्यक्ति इस स्थिति से बाहर कैसे आ सकता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि इस बीमारी से नुकसान कितना हुआ है। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो इससे बाहर आ जाते हैं, लेकिन वहीं कुछ लोगों में यह समस्या एक भौतिक रूप ले लेती है और मस्तिष्क का नुकसान कर देती है। इस स्थिति में दवाइयों के जरिए उसकी बाहर से मदद करनी पड़ती है। ऐसी स्थिति में लोग बड़े पैमाने पर सीडेटिव (ऐसी दवाइयां जो मानसिक शांति के लिए दी जाती हैं) का सेवन कर रहे हैं, लेकिन इसमें एक खतरा है कि इनका असर सिर्फ एक हिस्से में न होकर पूरे दिमाग में होता है।

मैं चाहता हूं कि आप जानें कि बहुत से लोग इसी कोशिश में बर्बाद हो गए। कभी ये लोग हमारी-आपकी तरह बिलकुल सामान्य थे। लेकिन एक दिन सबकुछ खत्म हो गया। एक दिन अचानक कहीं कोई फ्यूज उड़ा ओर वे सड़क पर पर आ गए।

विवेक और अविवेक के बीच बहुत बारीक सा अंतर है। आपमें से बहुत से लोगों को इस रेखा को पार करने में बड़ा मजा आता होगा। मान लीजिए आप किसी पर गुस्से में फट पड़े और उसने आपसे डर कर वह काम कर दिया, जो आप चाहते थे। अब आप कहेंगे कि पता है, ‘मैं गुस्से में पागल होकर उस पर फट पड़ा और उसने डर कर तत्काल वह काम कर दिया, जो मैं चाहता था।’ आप गुस्से में पागल हुए और वापस सामान्य स्थिति में आ गए, आपके कहने से लगता है कि आपने इस स्थिति का आनंद उठाया। मान लीजिए आप गुस्से में पागल हो जाते और वापस सामान्य स्थिति में आ ही ना पाते तो? फिर तो यह अलग स्थिति होती।

आप गुस्से, नफरत, ईर्ष्या, शराब या मादक चीजों की लत के चलते इस रेखा को पार करते रहते हैं। आप समझदारी की रेखा को लांघते रहते हैं, साथ ही आप इस दौरान होने वाले पागलपन का भी मजा लेते रहते हैं और फिर इस स्थति से बाहर आ जाते हैं। मैं चाहता हूं कि आप जानें कि बहुत से लोग इसी कोशिश में बर्बाद हो गए। कभी ये लोग हमारी-आपकी तरह बिलकुल सामान्य थे। लेकिन एक दिन सबकुछ खत्म हो गया। एक दिन अचानक कहीं कोई फ्यूज उड़ा ओर वे सड़कर पर आ गए।

इसी तरह से हमारे शरीर में बीमारी आती है। हो सकता है कि आज आप पूरी तरह से ठीक हों और कल सुबह आपका डॉक्टर आपसे कुछ और कहे। इस तरह की चीजें लोगों के साथ हर रोज हो रही है। यही चीज इंसान के दिमाग के साथ भी हो सकती है। अगर यह चीज आपके शरीर के साथ होती है यानी आप शारीरिक रूप से बीमार पड़ते हैं तो कम से कम आपको अपने आसपास के सब लोगों से हमदर्दी मिलती है, लेकिन अगर यही दिक्कत आपके दिमाग के साथ हो जाए तो आपको हमदर्दी मिलने की संभावना ना के बराबर होती है। तब कोई भी आपके आसपास नहीं रहना चाहता, क्योंकि मानसकि रूप से बीमार व्यक्ति को झेलना बहुत मुश्किल है। ऐसे में आपको भी पता नहीं होता कि कब वे बीमार हैं और कब वे बीमारी का नाटक कर रहे हैं, आप इसका फैसला नहीं कर पाते। जब वे बीमारी का नाटक कर रहे होते हैं तो आप उनके प्रति कठोर रुख अपनाते हुए उन पर काबू पाना चाहते हैं, लेकिन जब वे सच में बीमार होते हैं तो आपको उनके प्रति करुणा रखनी चाहिए। यह कोई आसान काम नहीं है, बिल्कुल दो छोरों पर बंधी रस्सी पर चलने जितना मुश्किल है। यह पीड़ित व्यक्ति के लिए कष्टदायक तो है ही, लेकिन उससे ज्यादा कष्टदायक उसके आसपास के लोगों के लिए होता है।

आज हमें ऐसा सामाजिक ढांचा बनाने की जरूरत है, जहां मानसिक रोगों की संभावना बेहद कम हो। अगर मैं लगातार भारतीय संस्कृति पर जोर देने के पीछे पड़ा रहता हूं तो इसके पीछे वजह है कि आज से 200-300 साल पहले इस देश में नाममात्र के ही मानसिक रोगी हुआ करते थे।

आज हमें ऐसा सामाजिक ढांचा बनाने की जरूरत है, जहां मानसिक रोगों की संभावना बेहद कम हो। अगर मैं लगातार भारतीय संस्कृति पर जोर देने के पीछे पड़ा रहता हूं तो इसके पीछे वजह है कि आज से 200-300 साल पहले इस देश में नाममात्र के ही मानसिक रोगी हुआ करते थे। इनकी संख्या कम होने की सीधी सी वजह एक खास तरह के सामाजिक ढांचे का होना भी था। लेकिन धीरे-धीरे हम अनजाने में इस ढांचे को खत्म करने में लगे हैं। आज हालत ये है कि गांवों में भी आपको मनोवैज्ञानिक रूप से पीड़ित लोग मिल जाएंगे, जबकि अतीत में अपने यहां ऐसा नहीं था। अगर अतीत में कहीं कुछ हुआ भी तो उसकी संख्या लगभग ना के बराबर रही। लेकिन अब यह संख्या लगातार बढ़ रही है। आप तथाकथित धनी या समृद्ध समाज में साफ तौर पर देख सकते हैं कि वहां इनकी तादाद अपेक्षाकृत काफी अधिक है। इसकी वजह है कि जब तक इंसान खास चीजों का अतिक्रमण नही करता, वह एक सामाजिक प्राणी के तौर पर रहता है। या तो हमारी कोशिश करने की होनी चाहिए या फिर हमें एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहिए, जो उसमें रहने वालों पर अत्यधिक बोझ डालने की बजाय एक सहयोगी माहौल मुहैया करा सके। फिलहाल हम जो सामाजिक संरचना बना रहे हैं, वह बहुत ज्यादा अपेक्षा रखने वाली और बोझ डालने वाली है।

आज यह शहरी इलाकों में ज्यादा हो रहा है, लेकिन इससे भी ज्यादा इसको पश्चिमी देशों में देखा जा सकता है। अगर आप अमेरकिा में रहना चाहें और वहां अगर आप 30 दिन का उपवास भी करते हैं तो भी आपके बिल में 3000 डॉलर जुड़ जाएंगे। दरअसल, वह समाज बना ही इस तरह का है, जहां वह व्यक्ति विशेष से काफी तरह की अपेक्षाएं रहती हैं, वहां व्यक्ति काम से छुट्टी लेकर यूं ही नहीं बैठ सकता। हर व्यक्ति लगातार काम करने की क्षमता नहीं रखता। बहुत से ऐसे लोग हैं, जिन्हें कुछ खास चीजों से दूर हटने की जरूरत होती है। अगर उनके जीवन में पर्याप्त साधना हो तो आप उन्हें 364 दिन चौबीसों घंटे सक्रिय रख सकते हैं। दरअसल, जीवन बहुत छोटा है और हम में से कोई भी व्यक्ति खाली नहीं बैठना चाहता। लेकिन अगर लोग साधना नहीं कर रहे तोयह बहुत जरूरी है कि लोगों के पास काम के बीच कुछ वक्त और मौका खाली हो।

हमारी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था भी बहुत ज्यादा अपेक्षाएं रखने वाली और बोझ डालने वाली है। हर कोई इसके लायक तैयार नहीं होता।

हमने ऐसे समाज की रचना की है, जहां रहने के लिए लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जहां हर वक्त एक प्रतिस्पर्द्धा चलती रहती है। इंसान के शरीर के भीतर ऐसी प्रतिक्रिया होती है जिसे ‘फाइट ओर फ्लाइट’ कहते हैं(इसमें भयानक तनाव या उत्तेजना के प्रति शरीर एक खास तरह के हॉरमोन - एड्रेनैलिन, स्रावित कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है)। हालंकि अनजाने में लोग अकसर कहते मिल जाएंगे कि ‘मुझे एड्रेनैलिन अच्छा लगता है।’ आप समझ नहीं रहे कि एड्रेनैलिन का असर क्या होता है। एंडरलीन हमारे शरीर में एक इमरजेंसी-सिस्टम है। मान लीजिए अचानक आपके सामने एक शेर आ जाता है, जिसे देखकर आपके शरीर में एड्रेनैलिन हॉरमोन स्रावित होने लगता है और आपको वहां से भागने में मदद करता है। लेकिन अगर आपके शरीर में सहज रूप से यूं ही एड्रेनैलिन प्रवाहित होता रहे तो आप सड़क पर चलते-चलते मर जांएगे। आपको उस स्थिति में हर वक्त नहीं रहना चाहिए। अगर आप मरेंगे नहीं तो बुरी तरह से टूट जाएंगे।

हमारी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था भी बहुत ज्यादा अपेक्षाएं रखने वाली और बोझ डालने वाली है। हर कोई इसके लिए तैयार नहीं होता। किसी के लिए यह आसान सी बात होती है, जबकि कोई दूसरा एक साधारण से वाक्य को पच्चीस बार पढ़ने के बाद भी कुछ समझ नहीं पाता। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि वह कुछ और कर पाने में सक्षम नहीं है। लेकिन हम उसे कुछ और करने की इजाजत ही नहीं देते। ‘उसे तो पहले यही करना होगा।’ आज समाज में ऐसे बहुत से ढांचे हैं जिन्हें क्रूर कहा जा सकता है, जो इंसान की भलाई और कल्याण के हिसाब से बिल्कुल उचित नहीं हैं। दरअसल, हम तो बस उन बड़ी मशीनों के पुर्जे बनाने की कोशिश कर रहे है, जो हमने बनाई हैं। हम चाहते हैं कि ये मशीने बनी रहें, सुचारु रूप से चलती रहें, लेकिन इस कोशिश में एक इंसान के साथ क्या हो रहा है, हम इसकी बिल्कुल परवाह नहीं करते। दरअसल यह मशीन एक छलावा है, जो कभी भी भरभरा कर गिर सकती है। अगर आप उस तरह की सामग्री से नहीं बने हैं कि इस बड़ी मशीन का पुर्जा बन सकें तो आप कई तरीके से छिन्न भिन्न हो सकते हैं।

हर इंसान को फलने फूलने के लिए एक खास तरह के शारीरिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक निजता के साथ-साथ एक खास तरह के माहौल की जरूरत होती है। इंसान के जीवन में शुरू से ही यह माहौल गायब है। यहां तक कि एक नवजात शिशु को भी यह माहौल नहीं मिल पा रहा। एक समय ऐसा था जब मां बच्चे को अपनी छाती से लगाती थी तो फिर उसे वक्त या किसी की भी चिंता नहीं रहती थी। आज मां बच्चे को दूध पिलाते समय घड़ी देखती रहती है कि बच्चा जल्दी से दूध क्यों नही पी रहा, उसे काम पर भी जाना है। यहां तक कि बच्चे के जन्म के एक हफ्ते बाद ही वह काम पर वापस चली जाती हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि महिलाओं को काम नहीं करना चाहिए, बल्कि मैं यह कह रहा हूं कि इंसान को अच्छी तरह से जीना चाहिए। अगर इंसान को अच्छी तरह रहर्ना और जीना है तो उसे कुछ खास तरह की भीतरी सच्चाइयों को भी समझना होगा। हर बच्चे को ‘आगे चलकर मेरा क्या होगा’ जैसी किसी सोच या चिंता के बिना बड़ा होना चाहिए। लेकिन हो यह रहा है कि स्कूल के पहले दिन से ही बच्चे को अपने पड़ोस के बच्चे से दो नंबर कम आने का तनाव होने लग रहा है। यह सब बेकार की बात है। यह भाव इंसान को खत्म कर देगा। जबकि हम सोचते हैं कि यही इंसान का प्रदर्शन या उपलब्धि, उसका कल्याण और उसकी कुशलता है, जो पूरी तरह से गलत है। अगर आपने इंसान को ही खत्म कर दिया तो फिर आपके द्वारा बनाए गए ढांचे का औचित्य ही क्या बचता है?

एक समय ऐसा था जब मां बच्चे को अपनी छाती से लगाती थी तो फिर उसे वक्त या किसी की भी चिंता नहीं रहती थी। आज मां बच्चे को दूध पिलाते समय घड़ी देखती रहती है कि बच्चा जल्दी से दूध क्यों नही पी रहा, उसे काम पर भी जाना है।

ऐसे कुछ लोग हैं, जिनमें शारीरिक दिक्कतें आती हैं, जो स्वाभाविक रूप से पैदा हुई हैं। लेकिन इनकी संख्या बहुत कम है। हम लोग तो बाकी बचे हुए लोगों को तोड़ने के लिए जिम्मेदार हैं। सवाल ये है कि जो लोग इस स्थिति में  पहुंच चुके हैं, उनका वहां से निकलने का क्या रास्ता है? अगर वह एक खास सीमा पार कर चुके हैं तो उनके लिए दवा जरूरी हो जाती है। अगर इस स्थिति में कुछ समय बाद हम दवा के साथ समानांतर रूप से साधना जैसी चीजों का सहारा भी लेते हैं तो इसके नतीजे बेहतर निकल सकते हैं। उस स्थिति में दवाओं के उपर निर्भरता कम होने की संभावना रहती है।

सबसे बड़ी बात यह कि हर व्यक्ति शारीरिक और मानसिक स्तर पर एक जैसा नहीं होता। मानसिक रूप से बीमार लोगों की देखभाल करने का कोई खास तरीका नहीं होता, यह काम अपने आप मे काफी मुश्किल और जटिल है। अगर आप ऐसे लोगों की देखभाल के लिए एक स्वस्थ माहौल तैयार करना चाहते हैं तो इसके लिए बहुत बड़े बुनियादी ढांचे की जरूरत होगी, जिसमें भौतिक ढांचे से लेकर इंसानी ढांचा तक सभी शामिल है। अफसोस कि मुझे नहीं लगता कि कोई भी व्यक्ति इस दिशा में इतनी सामग्री और इतने इंसानों को लगाने के लिए इच्छुक है।

ऐसे लोगों को इस स्थिति से बाहर लाने के लिए बहुत ज्यादा विशेषज्ञता, देखभाल के साथ एक खास तरह से उसमे लगने की जरूरत होती है। हो सकता है कि इसके बाद भी इन्हें पूरी तरह से बाहर नहीं लाया जा सके। आपको उन्हें अपनी सीमाओं के भीतर ही सहजता और सुविधा का अहसास कराना होगा, ताकि आप उन्हें उनकी पीड़ाओं से कुछ राहत दिला सकें। लेकिन इसके लिए अत्यधिक समर्पित देखभाल के साथ-साथ एक खास तरह की विशेषज्ञता और परानुभूति की जरूरत होती है।

प्रेम व प्रसाद,