सद्‌गुरुक्या सच में ईश्वर का अस्तित्व है ? जानते हैं की कैसे हम ईश्वर के अस्तित्व के बारे में सिर्फ विश्वास  कर सकते हैं।  और कैसे इन विश्वासों का मूल भक्ति की गलत समझ  है

प्रश्न : सद्‌गुरु, क्या आप विश्वास करते हैं  कि इस ब्रह्मांड की रचना ईश्वर ने या किसी ऊर्जा या आप उसे जो भी नाम दें, उसने की?

मजबूरी में कल्पना करते हैं लोग

सद्‌गुरु : लोगों को जिन चीजों की जानकारी नहीं होती, उसके बारे में कल्पना कर लेना उनकी मजबूरी होती है। आम तौर पर लोग मुझ पर आरोप लगाते हैं कि मैं उनके ईश्वर को छीन रहा हूं। एक शहर में दो छोटे लडक़े थे, जो जोश से भरपूर थे। अगर युवा लडक़े जोश से भरपूर हों तो वे अक्सर मुसीबत में पड़ते रहते हैं। तो वे भी अपने आस-पड़ोस में मुसीबत का सामना करते रहते थे।

जब आप पैदा हुए और अपनी आंखें खोलीं, तो सृष्टि सामने थी। साफ  तौर पर उसे आपने नहीं बनाया। तो फि र किसी न किसी ने तो इसकी रचना की होगी - यह एक सरल विचार है।
उनके माता-पिता इस बात को लेकर बहुत चिंता में थे कि उनके लडक़े हमेशा मुसीबत में होते हैं। पूरे पड़ोस में उनकी चर्चा होती रहती थी। जब उनके मां-बाप को समझ नहीं आया कि वे क्या करें, तो एक दिन उन्होंने लडक़ों को सुधारने के लिए वहां के पादरी के पास उन्हें ले जाने का फैसला किया। उन्होंने छोटे वाले को पहले ले जाने का फैसला किया क्योंकि उसे सुधारना थोड़ा आसान था। वे उसे लेकर पादरी के पास गए। लडक़े को वहां बिठा कर उसके माता-पिता चले गए। पादरी आया और सोचने लगा कि इस लडक़े को शरारत से दूर कैसे ले जाया जाए। उसके दिमाग में एक ख्याल आया।

पादरी ने सोचा कि अगर वह उस लडक़े को याद दिलाए कि ईश्वर उसके अंदर ही है, तो वह शरारत करना छोड़ देगा। अपको पता ही है कि कुछ लोग हमेशा उम्मीद रखते हैं। जीवन हमेशा मूर्खतापूर्ण उम्मीदों पर चलता है। तो उसने अचानक लडक़े की ओर देखकर पूछा ‘ईश्वर कहां है?’ लडक़े ने चारों ओर देखा। वह घबराया गया - इतना बड़ा सवाल! पादरी ने देखा कि लडक़े को बात समझ में नहीं आ रही है। वह मेज पर झुका और संकेत देने के लिए उसकी ओर उंगली से इशारा करके बोला, ‘ईश्वर कहां है?’ लडक़ा और ज्यादा घबरा गया। फि र पादरी को लगा, अच्छा यह समझ नहीं रहा है। वह लडक़े के करीब गया और उस छोटे से लडक़े की छाती पर उंगली रखकर पूछा, ‘ईश्वर कहां है?’ लडक़ा कुर्सी से उठकर फ़ौरन कमरे के बाहर भाग गया। वह भागते हुए बड़े भाई के पास गया और उससे कहा, ‘हम एक बड़ी मुसीबत में फ ंस चुके हैं।’ बड़े भाई ने पूछा, ‘क्यों? क्या हुआ?’ वह बोला, ‘अरे, पादरी का ईश्वर खो गया है और उसे लगता है कि वह हमारे पास है।’

ईश्वर के बारे में आप विश्वास क्यों करते हैं?

बस इतना है कि आप बहुत सी ऐसी चीजों पर विश्वास करते हैं, जिनके बारे में आप नहीं जानते। आपके बेवकूफीपूर्ण विचारों को दूर किया जा सकता है। अगर आपने चैतन्य को पा लिया है, तो क्या मैं आपसे उसको छीन सकता हूं या कोई और उसे छीन सकता है? आप बस किसी चीज पर विश्वास कर लेते हैं, जबकि आपका विश्वास कोई मायने नहीं रखता है, क्योंकि आपको किसी भी चीज का विश्वास दिलाया जा सकता है। हर किसी को लगता है कि उसका विश्वास किसी और के विश्वास से बेहतर है। सबसे पहले तो आप किसी चीज पर विश्वास करते ही क्यों हैं? कुछ लोगों को विश्वास है कि ईश्वर का अस्तित्व है, कुछ लोग मानते हैं कि कोई ईश्वर नहीं है। अच्छा यह बताइए कि आपके पास दो हाथ हैं ‐ इस बात का आपको विश्वास है या यह बात आप जानते हैं? चाहे आपके पास इन हाथों को देखने के लिए आंखें न हों, क्या तब भी आपको पता होगा कि आपके पास हाथ हैं? आप अपने अनुभव से जानते हैं कि आपके दो हाथ हैं। क्या कोई आपसे बहस करके आपके सामने साबित कर सकता है कि आपके पास हाथ नहीं हैं? अगर वह आप पर बहुत अधिक हावी हो रहा है, तो चेहरे पर एक तमाचा जड़ दीजिए, उसे पता चल जाएगा कि आपके पास हाथ हैं। हाथ के बारे में आप जानते हैं, लेकिन ईश्वर के बारे में आप विश्वास करते हैं। ऐसा क्यों?

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बात यह है कि कहीं न कहीं आपके अंदर यह स्वीकार करने की ईमानदारी नहीं है कि ‘मैं नहीं जानता।’ समस्या यही है। ‘मैं नहीं जानता’ आपके जीवन में एक जबर्दस्त संभावना लेकर आता है। जब आप ‘मैं नहीं जानता’ कहेंगे, तभी जानने की संभावना आपके अंदर पैदा होगी। अगर आप ‘मैं नहीं जानता’ को नष्ट कर देते हैं, तो आप जानने की सारी संभावनाओं को भी नष्ट कर देते हैं।

कल्पना का सिलसिला कैसे शुरू हुआ

हम मूल बात पर आते हैं। आपने सृष्टा के बारे में कल्पना कब की? जब आप पैदा हुए और अपनी आंखें खोलीं, तो सृष्टि सामने थी। साफ  तौर पर उसे आपने नहीं बनाया। तो फि र किसी न किसी ने तो इसकी रचना की होगी - यह एक सरल विचार है। इसी आधार पर हर संस्कृति ने ईश्वर के बारे में अपनी-अपनी धारणा बना ली।

आप सिर्फ  अपने जीवन में तसल्ली और सहारे के लिए प्रतीकों और विश्वास का इस्तेमाल कर सकते हैं। आप किसी चीज में विश्वास करते हुए आज रात थोड़ी बेहतर नींद ले सकते हैं। यह आपको शांत तो करेगा मगर मुक्त नहीं।
सृष्टि मौजूद थी, इसलिए हमने मान लिया कि एक सृष्टा भी होगा मगर यह एक कल्पना ही है। आप उसे जानते नहीं हैं। तो फिर आप ईमानदारी से क्यों नहीं मान लेते कि ‘मैं नहीं जानता’? फि लहाल आपको लोगों ने इस बारे में बताया है। जिन लोगों ने आपको यह बताया है कि ईश्वर है, उन्होंने ही आपको यह भी बताया है कि ईश्वर हर जगह है। अगर वह हर जगह है, तो वह मुझमें और आपमें भी होना चाहिए। आप जिसे ईश्वर कहते हैं, अगर वह आपके अंदर है और आपने इसका अनुभव नहीं किया है, तो क्या कहीं और उसका अनुभव करने की संभावना है? बिल्कुल नहीं है।

जब आप पैदा हुए थे, तो आपका शरीर छोटा सा था, जो अब कितना बड़ा हो गया है! क्या किसी ने इसे बाहर से खींचा है? क्या आप हर महीने इसे किसी से खिंचवाते हैं? जिसे आप ईश्वर कहते हैं, वह आपके भीतर से काम कर रहा है। वह हर पल आपके भीतर से संचालित हो रहा है। इसलिए अगर ईश्वर यहीं है और फि र भी आपने उसका अनुभव नहीं किया है, तो क्या आप कहीं और उसका अनुभव कर पाएंगे? कभी भी नहीं। सृष्टि की प्रक्रिया ठीक यहीं, आपके भीतर घटित हो रही है। यह सबसे करीबी सृष्टि और यही सबसे करीबी सृष्टा है, जिसे आप जानते हैं। अगर आप यहां उसका अनुभव नहीं कर सकते, तो कहीं और उसका अनुभव करने की कोई संभावना नहीं है। तब केवल मतिभ्रम हो सकता है।

जब मैं सिर्फ  दस-ग्यारह साल का था, तब ये सब बातें मुझे बहुत कौतूहलपूर्ण लगतीं थी। मैं जाकर अपने शहर के एक बड़े मंदिर के सामने बैठ गया। मैं देखना चाहता था कि लोग कैसे अंदर जाकर ईश्वर से मिलते हैं और जब बाहर आते हैं, तो उनके साथ क्या होता है? मैं वहां बैठकर कई दिनों तक सिर्फ  लोगों को ध्यान से देखता रहा। मुझे बस यही दिखाई दिया कि लोग अंदर जाते थे, बाहर आकर मंदिर में दिखाई दिए किसी शख्स के बारे में बातें करते थे और अगर बाहर आने पर उन्हें पता चलता कि उनकी पुरानी चप्पलें किसी और के साथ चली गई हैं, तो वे सृष्टा और सृष्टि को कोसने लगते। मुझे हमेशा रेस्तरां से बाहर आते लोगों के चेहरों पर मंदिर से निकलने वाले लोगों से ज्यादा खुशी और शांति दिखती थी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है, मगर सच है।

जो लोग ईश्वर से मिलकर आते हैं, उन्हें तो आनंदपूर्वक बाहर आना चाहिए। मगर ऐसा नहीं होता। ज्यादातर समय ऐसा नहीं होता। ऐसा नहीं है कि मंदिर में कुछ गड़बड़ है, बात बस इतनी है कि अगर आप अपने अंदर की चीज का अनुभव करने में समर्थ नहीं हैं, तो आप निश्चित तौर पर अपने बाहर की किसी चीज का अनुभव करने में भी असमर्थ होंगे। आप सिर्फ  कल्पना कर सकते हैं। आप सिर्फ  अपने जीवन में तसल्ली और सहारे के लिए प्रतीकों और विश्वास का इस्तेमाल कर सकते हैं। आप किसी चीज में विश्वास करते हुए आज रात थोड़ी बेहतर नींद ले सकते हैं। यह आपको शांत तो करेगा मगर मुक्त नहीं। यह आपको जाग्रत नहीं करेगा। आप उन बेवकूफी भरी बातों से मुक्त नहीं हैं, जिनमें दूसरे जकड़े हैं। ऐसा ईश्वर के कारण या किसी और चीज के कारण नहीं है, बल्कि इसलिए है क्योंकि आप अपने मन के साथ छल कर रहे हैं।

 

प्रश्न : फिर ये विश्वास कहां से शुरु हुए?

भक्ति की गलत समझ से शुरू हुए ये विश्वास 

सद्‌गुरु : देखिए, फि लहाल तो यह विश्वास उस मूल प्रक्रिया से निकला है, जिसे हम भक्ति कहते हैं। इतने सालों से भक्ति दुनिया में सबसे लोकप्रिय चीज इसलिए रही है क्योंकि ज्यादातर लोगों के लिए उनकी भावना ही उनकी सबसे तीव्र चीज होती है। उनकी बुद्धि या भौतिक शरीर उतने तीव्र नहीं होते। उनकी ऊर्जा भी उतनी तीव्र नहीं होती, मगर उनकी भावनाएं बहुत तीव्र होती हैं। भावनाएं हमेशा से सबसे तीव्र चीज रही हैं, इसलिए लोगों ने लंबे समय तक भक्ति का प्रचार किया।

अभी अगर ईश्वर आपके सामने प्रकट हो जाएं, तो आप उनके सामने समर्पण नहीं करेंगे। आप जांच-पड़ताल करेंगे। आपके पास इसी तरह का मन है। इस तरह के मन के साथ भक्ति की बात मत कीजिए, वह समय की बर्बादी होगी।
बस विश्वास कीजिए और वह चीज घटित हो जाएगी। मगर आज आपने अपनी बुद्धि को एक खास स्तर तक विकसित कर लिया है, इसलिए आप किसी चीज पर सौ फीसदी विश्वास नहीं कर पाते। अभी अगर ईश्वर आपके सामने प्रकट हो जाएं, तो आप उनके सामने समर्पण नहीं करेंगे। आप जांच-पड़ताल करेंगे। आपके पास इसी तरह का मन है। इस तरह के मन के साथ भक्ति की बात मत कीजिए, वह समय की बर्बादी होगी। भक्ति सिर्फ छलावा बन कर रह जाएगी। अगर आप बहुत सरल और निष्कपट इंसान हैं, तो भक्ति आपके लिए बहुत चमत्कारी असर करेगी। अगर आप वाकई एक सरल इंसान हैं, तो भक्ति आपके लिए सबसे तेज तरीका है। अगर आपके पास सोचने, सवाल करने वाला दिमाग है, तो आप अपने दिमाग को एक ओर हटाकर यह नहीं कह सकते ‘मैं विश्वास करता हूं।’ ऐसे में आप सिर्फ  अपने आप को छलेंगे। असल में आप किसी पर सौ फ ीसदी विश्वास नहीं करते। आपके सबसे करीबी, प्रिय और सबसे अधिक भरोसेमंद लोग भी, आज अगर थोड़ा अजीब बर्ताव करने लगें या उनका बर्ताव आपको समझ में न आए, तो आप चौबीस घंटे के भीतर उन पर संदेह करने लगेंगे। वास्तव में आपके पास जिस तरह का दिमाग है, उसके साथ आप किसी चीज पर विश्वास नहीं कर सकते। इसलिए इस दिमाग के साथ आप भक्ति की बात मत कीजिए। यह कारगर नहीं होगा। यह समय और जीवन की बर्बादी है।

कहीं न कहीं आपके अंदर यह स्वीकार करने की ईमानदारी नहीं है कि ‘मैं नहीं जानता।’ समस्या यही है। ‘मैं नहीं जानता’ आपके जीवन में एक जबर्दस्त संभावना लेकर आता है। जब आप ‘मैं नहीं जानता’ कहेंगे, तभी जानने की संभावना आपके अंदर पैदा होगी।

अभी अगर ईश्वर आपके सामने प्रकट हो जाएं, तो आप उनके सामने समर्पण नहीं करेंगे। आप जांच-पड़ताल करेंगे। आपके पास इसी तरह का मन है। इस तरह के मन के साथ भक्ति की बात मत कीजिए, वह समय की बर्बादी होगी।