अब तक आपने पढ़ा: कृष्ण शैब्या को अपनी छोटी बहन बना कर अपने साथ मथुरा ले गए, और उसे देवकी को सौंप दिया। लेकिन शैब्या अब भी क्रोध से भरी हुई थी, और कृष्ण को बुरा भला कहती रहती थी। अब पढि़ए आगे की कहानी:

 

देवकी के पास कृष्ण की एक छोटी सी सुनहरी मूर्ति थी जिसकी वह तब से पूजा किया करती थीं, जब कृष्ण ने कारागार में जन्म लिया था और जन्म के बाद उन्हें वहां से दूर कर दिया गया था। सोलह साल से उन्होंने अपने बच्चे को देखा नहीं था।

"मैंने कृष्ण को नन्हे बालक के रूप में बहुत थोड़े समय के लिए अपने हाथों में लिया था, फिर मुझे उसकी सुरक्षा के लिए खुद से दूर भेजना पड़ा। तब से यही प्रतिमा मुझे स्वस्थ और जिंदा रखे हुए है, इसलिए मैं रोज इसे पूजती हूं।"
एक चीज जो लगातार उनके पास थी, वह थी बच्चे की सुनहरी प्रतिमा जिसे वह रोज भगवान की तरह पूजती थीं। यह उन्हें बहुत प्यारी थी। यहां तक कि कृष्ण के युवा होकर वापस आने के बाद भी वह लगातार इस मूर्ति की पूजा किया करती थीं।

एक दिन शैब्या ने देवकी के पास आकर बड़े बेतुके तरीके से पूछा, "आप किसकी पूजा कर रही हैं? यह किसकी मूर्ति है?"

देवकी ने उत्तर दिया - "यह मेरे भगवान हैं।"

शैब्या ने फिर पूछा - "कौन हैं आपके भगवान?" उसके इतनी उपेक्षा के साथ यह सवाल पूछा कि आस-पास के लोग हैरान रह गए।

यह सुनकर देवकी ने उसे आराम से समझाया - "यह कृष्ण हैं और यही मेरे इष्ट हैं।"

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शैब्या ने फिर पूछा, "यह अब बड़े हो गए हैं तो आपने इनकी बचपन की प्रतिमा क्यों रखी हुई है?"

इस पर देवकी ने जवाब दिया - "मैंने कृष्ण को नन्हे बालक के रूप में बहुत थोड़े समय के लिए अपने हाथों में लिया था, फिर मुझे उसकी सुरक्षा के लिए खुद से दूर भेजना पड़ा। तब से यही प्रतिमा मुझे स्वस्थ और जिंदा रखे हुए है, इसलिए मैं रोज इसे पूजती हूं।" यह सुनकर शैब्या मुस्कुराई और उनके भगवान होने की बात को बकवास बताकर मानने से इनकार कर दिया। यह बात कृष्ण को पता चल गई।

अगले दिन जब शैब्या बगीचे में थी, तो कृष्ण त्रिवक्रा के साथ वहां आए। उनके हाथ में एक चांदी का बक्सा था।

वह शैब्या से बोले, "मैं तुम्हारे लिए एक उपहार लाया हूं शैब्या।"

उपहार की बात सुनकर शैब्या ने कहा, "यह तुम्हारी एक और चाल होगी। मेरे लिए उपहार क्यों? और तुम मुझसे क्या चाहते हो?"

यह सुनकर कृष्ण ने कहा, "मैं तुमसे कुछ नहीं चाहता। मैं तो बस तुम्हें कुछ ऐसा देना चाहता हूं जो तुम्हें अच्छा लगे।"

शैब्या ने बक्सा छीन लिया और देखने लगी कि उसमें क्या है। उसमें उस आडंबरपूर्ण और बेवकूफ श्रीगला वासुदेव की छोटी सी सुनहरी मूर्ति निकली जिसे वह अपना ईश्वर मानती थी।

कृष्ण बोले, "इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कौन थे। तुमने अपने मन में इसे स्थापित किया हुआ है तो तुम इस सुनहरी मूर्ति को क्यों नहीं पूजती? शायद यही तुम्हारे मन में नफरत की बजाय शांति और प्रेम भर दे।"

यह सुनकर शैब्या भडक़ गई और बोली, "हो न हो, यह तुम्हारी चाल है। तुम हत्यारे हो, तुमने मेरे इष्ट को मारा है और अब मुझे यह खिलौना देकर कह रहे हो कि मुझे इसकी उपासना करनी चाहिए। क्या तुम यह सब इसलिए कर रहे हो कि मैं तुम्हें माफ कर दूं? मैं तुम्हें कभी माफ  नहीं करूंगी।" यह सुनकर कृष्ण ने कहा, "ठीक है। तुम्हें मुझे माफ  करने की कोई जरूरत नहीं है। मैं तुमसे माफी देने के लिए कह भी नहीं रहा हूं। मैंने अपना धर्म निभाया है, तुम अपना धर्म निभाओ। तुम उस व्यक्ति से प्रेम करती थी और उसे इष्ट मानती थी तो तुम उसकी पूजा क्यों नहीं करती?" उसने फौरन वह मूर्ति झपट ली और अपनी आंखों से लगाती हुई बोली, "हां, मैं इसकी पूजा जरूर करूंगी, ताकि यह रोज मुझे याद दिलाए कि तुम हत्यारे हो और मैं तुम्हें कभी भी माफ न करूं।"

कृष्ण बोले, "कोई बात नहीं। बस तुम इसकी उपासना करो।"

फिर कृष्ण ने उसे दूसरा संदूक देते हुए कहा - "मैं तुम्हारे लिए और एक उपहार लाया हूं। मैं तुम्हारे लिए कुछ वस्त्र और गहने लाया हूं ताकि जब तुम उसकी भक्ति करो तो तुम सलीके के कपड़े पहन कर करो। आखिर तुम अपने आराध्य के पास जा रही हो।"

शैब्या ने वे वस्त्र और गहने लिए और कृष्ण के मुंह पर फेंक दिए। कृष्ण ने उन्हें जमीन से उठा लिया। यह सब देखकर त्रिवक्रा गुस्से से भर गई और शैब्या से बोली, "गुस्ताख लडक़ी। बस बहुत हो गया। वह तेरे साथ अच्छा व्यवहार कर रहे हैं, इसलिए तू हद से बाहर जा रही है। तेरी हिम्मत कैसे हुई ये चीजें उनके मुंह पर फेंकने की?"

कृष्ण तुरंत बोले, "त्रिवक्रा, तुम्हें क्या हुआ? यह मेरे और उसके बीच की बात है।"

त्रिवक्रा कहने लगी, "अगर मैं कृष्ण होती तो मैं आज तुझे सबक सिखाती।

उसकी बातें सुनकर कृष्ण ने कहा, "अगर तुम कृष्ण होतीं तो त्रिवक्रा नहीं होती। केवल मैं ही कृष्ण हूं और इसीलिए त्रिवक्रा भी है।"

सब कुछ ऐसे ही चलता रहा और वह लडक़ी जो कृष्ण के लिए घृणा की भावना से झुलस रही थी, धीरे-धीरे बदल गई। अब वह उन्हें बहुत पसंद करने लगी और हमेशा उनका साथ देने लगी। उसकी कृष्ण से विवाह करने की कोई चाह नहीं थी और न ही वह उनसे ऐसी कोई अपेक्षा रखती थी। वह बस उनकी सेवा करना चाहती थी।

एक बार ऐसी स्थिति आई कि कृष्ण को अपना जीवन खतरे में लगा। ऐसे में उन्होंने अपना चक्र उद्धव को दे दिया।

शैब्या ने बक्सा छीन लिया और देखने लगी कि उसमें क्या है। उसमें उस आडंबरपूर्ण और बेवकूफ श्रीगला वासुदेव की छोटी सी सुनहरी मूर्ति निकली जिसे वह अपना ईश्वर मानती थी।
यह चक्र उनका सबसे शक्तिशाली हथियार था। उन्होंने इसे गोमांतक पर्वत पर अपने हाथों से बनाया था और इसे परशुराम के आशीर्वाद की शक्ति प्राप्त थी, इसलिए यह उनके लिए बेशकीमती था। खैर, उन्होंने उद्धव को वह चक्र देते हुए कहा कि अगर मैं वापस न लौट सकूं तो यह सुदर्शन चक्र शैब्या तक पहुंच देना। यह बात शैब्या के लिए सबसे बड़ा सम्मान था।

जब रुक्मणि को इस बात का पता चला कि कृष्ण ने सुदर्शन चक्र उसे न देकर शैब्या को दे दिया तो अचानक उन्हें अपनी कमजोरियों का अहसास हुआ। वह उनकी पहली पत्नी के रूप में बहुत खुश थीं और शैब्या की सभी बातों को भुला चुकी थीं। इस घटना के बाद रुक्मणि ने जिद की कि श्रीकृष्ण शैब्या से शादी कर लें और उसे अपनी पत्नी जरूर बनाएं। इस तरह शैब्या कृष्ण की जिंदगी में आने वाली वह दूसरी स्त्री थी, जिसे कृष्ण के नीले जादू ने एक नफरत भरी स्त्री से प्रेमपूर्ण व समर्पित स्त्री बना दिया। उसने खुद को पूरी तरह से बदल दिया था।