बेसुध
इंद्रियों का इंद्रियों से मिलन, करता है तुम्हें बेसुध, उस सब से, जो सत्य है...
ये शाश्वत शरारत
इन पांच तत्वों का
कितना साधारण फंदा डाला आपने
जिसमें ऐसा फंसा है मानव
कि नहीं जान सकता कभी
विराम क्या है
और करता रहता है निरंतर संघर्ष
अंतहीन बेचैनी व अशांति में।
तुम्हारे अंदर का शैतान
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पांचों इंद्रियों के मधुर पेंच से
बनाता है उस फंदे को खूबसूरत
इंद्रियों का इंद्रियों से मिलन
करता है तुम्हें बेसुध
उस सब से, जो सत्य है
वह द्वार जो तुम्हें रोकता है
वही तो वो द्वार है जो मुक्त करता है
अरे, कहां खड़े हो तुम
द्वार के इस पार या उस पार
शम्भो, मेरी धृष्टता और तुम्हारी कृपा
मुझे द्वार के पार ले गए, तुम्हारी तरफ
अगर तुम बहुत सर्तक हो चुनने में
कि कौन जाएगा पार इस द्वार के
फिर चुन कर मुझे की है गलती तुमने
इस नई सुध ने कर दिया है इतना बेसुध मुझे
कि मैं इस द्वार को खुला ही रखूंगा हमेशा
ताकि वह हर कीड़ा पार कर जाए जो रेंग सकता है
मेरा यह फरेबी अभिमान, मुझे माफ करना
यह 'मैं’ आखिर तुम ही तो हो।
-सद्गुरु
यह कविता ईशा लहर मई 2014 से उद्धृत है।
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