प्रकृति में एक खास बदलाव होने वाला है - 21 जून से। यह बदलाव कितना महत्वपूर्ण है एक साधक के लिए और आध्यात्म की राह पर चलने वालों को क्या करना चाहिए ऐसे मौके का लाभ उठाने के लिए, इसी का चर्चा कर रहे हैं सद्‌गुरु आज के स्पॉट में...

योगिक संस्कृति में साल के इन छह महीनों को ‘कैवल्य पद’ कहा जाता है, जिसका मतलब है कि ‘फसल काटने का समय’। 21 जून को होने वाली ग्रीष्म संक्रांति से लेकर 22 दिसंबर तक की शीत संक्राति का समय ‘साधना पद’ कहलाता है, जिसका मतलब है ‘कर्म यानी साधना का समय’। मान लीजिए कि आपके पास आम का पेड़ है तो हर साल इस समय उसमें फल आते हैं। इसी तरह से यह समय साधक के लिए वह फल प्राप्त करने का होता है, जिसके लिए उसने काम किया होता है।

कैवल्य पद का अर्थ है कि आपने साधना पद में जो छह महीने साधना या मेहनत की, अब उसके फलने का, पैदावार का वक्त आ गया है। बचे हुए दो हफ्तों में आपको खुद को संगठित करना है।
अगर आपकी समझ की दृष्टि से देखा जाए तो पिछले छह महीने में आपने जो ज्ञान या विवेक अर्जित किया है, अब उसका फल लेने का वक्त आ गया है। यह अपने आप में संगठित होने जैसा है। एक बार यह संगठित हो गया तो उसके बाद इसमें फिर कोई पलटाव नहीं होगा। हम जब दोबारा काम शुरू करेंगे तो वहां से शुरू होगा, जहां पिछली बार हमने छोड़ा था। इसके लिए हमें एक आधार रेखा तैयार करनी होगी, इसके लिए आपको बार-बार शुरुआत से शुरू नहीं करना होगा।

Subscribe

Get weekly updates on the latest blogs via newsletters right in your mailbox.

 

हाल ही में मेरे पास एक दंपति आया, जिनकी शादी को तीस साल हो चुके थे। तीस सालों के संबंध के बाद भी वे समझ नहीं पा रहे थे कि उन्होंने यह शादी करके ठीक किया या नहीं। ऐसे सवाल मेरे सामने अकसर आते रहते हैं। मान लीजिए कि अगर जीवन एक हजार साल का होता तो आप तीस साल का प्रयोग करके देख सकते थे कि जो हुआ, वही ठीक था या नहीं। लेकिन एक आम इंसान का सक्रिय जीवन सत्तर से अस्सी साल होता है। हो सकता है कि आप इस जीवन काल को थोड़ा और खींच लें, लेकिन असली महत्व उसी सक्रिय जीवनकाल का है। अब अगर जीवन काल इतना ही है तो इसमें 30 साल को प्रयोग में बिताना कहीं से भी ठीक नहीं कहा जा सकता। काल यानी समय आपके जीवन का सिर्फ आधा ही हिस्सा होता है, जबकि जीवन का बाकी आधा हिस्सा ऊर्जा होती है। ऊर्जा को तो संग्रहित कर सकते हैं या सहेज सकते हैं, जबकि वक्त आपके हाथ से फिसलता जाता है। अब संक्राति के होने में महज दो हफ्ते से थोड़ा सा ही ज्यादा वक्त बचा है। यह समय आप सबके के लिए यह तय करने का है- ‘एक साल पहले मैं कहा था और आज मैं कहां हूं। इस एक साल में मैंने क्या किया? अगर समझ, जीवन के प्रति अपनी बुद्धिमत्ता, अपनी ऊर्जा की दृष्टि से बात जाए तो मैं खुद को इससे निचले स्तर पर नहीं जाने दूंगा। अब से यह मौजूदा स्तर मेरे आगे के लिए एक आधार रेखा का काम करेगा, न कि पिछले साल का स्तर।’

 

अनंत आकाश में या अस्तित्व में इसे लेकर किसी तरह के खांचे या विभाजन नहीं होते, हां इंसान के दिमाग में जरूर होते हैं। दरअसल, अभी भी आपका तालमेल अनंत के साथ नहीं हो पाया है, आप अभी भी शरीर और मन के स्तर पर काम कर रहे हैं। इन दोनों के लिए ही आपको एक रेखा खींचनी होगी ताकि आप समझ सकें कि आप कहां जा रहे हैं, अन्यथा आपको पता ही नहीं चलेगा कि आप आगे जा रहे हैं या पीछे। इसका यह मतलब नहीं है कि आप खुद को संरक्षित कर रहे हैं, बचा रहे हैं। आप को खुद बचा कर नहीं रख सकते। मरे हुए को संरक्षित किया जाता है, जिंदा लोगों के जीवन को संरक्षित नहीं किया जा सकता। जीवन को जितनी प्रबलता से खर्च किया जा सके, उसे खर्च करना चाहिए। अगर आप जीवन की बचत करने की कोशिश करेंगे तो आप खुद को जीवन से वंचित कर लेंगे। इसे खर्च करने का एक ही तरीका है कि जहां तक हो सके इसे पूरी प्रबलता के साथ जिएं, ताकि जीवन उमंग और आनंद से भरे एक प्रवाह के रूप में सामने आ सके। संरक्षण तो मरे हुए जीवों का होता है।

 

एक दौर में शंकरन पिल्लै को शराब की जबरदस्त लत थी। लेकिन एक भले इंसान होने के नाते एक दिन उन्होंने अपने शरीर के सारे अंग विज्ञान को दान कर दिए, ताकि उनके मरने के बाद उनका शरीर विज्ञान के प्रयोगों में काम आ सके। हालांकि शरीर के अंग दान करने के बाद भी उन्होंने पीना नहीं छोड़ा। एक दिन किसी ने उनसे पूछा- ‘आप शराब छोड़ क्यों नही देते?’ इस पर उन्होंने जवाब दिया, ‘अरे नहीं, मुझे एक पावन जिम्मेदारी निभानी है। मैंने अपना पूरा शरीर विज्ञान को दान कर दिया है, इसलिए मुझे उन अंगों को सरंक्षित रखना है। इसलिए मैं उन अंगों को शराब में डूबो कर संरक्षित कर रहा हूं।’

 

खुद को संरक्षित रखने की आपकी प्रवृत्ति हमेशा यह देखती रहती है कि कैसे खुद को बचाया जाए। आप जीवन को नहीं बचा सकते।

जहां तक हो सके इसे पूरी प्रबलता के साथ जिएं, ताकि जीवन उमंग और आनंद से भरे एक प्रवाह के रूप में सामने आ सके। संरक्षण तो मरे हुए जीवों का होता है।
सिर्फ एक ही बात महत्वपूर्ण है कि आप जीवन को एक आग की तरह, पूरी तेज़ी और तीव्रता से जिएं, किसी कायर या कमजोर इंसान के तौर पर नहीं। जो लोग जिंदगी को जीने की बजाय खुद को सहेजने की कोशिश में लगे हैं, वे जीते जी मरे हुए इंसान की तरह हैं और जब मृत्यु उनके नजदीक आएगी तो वे जीने के लिए तरसेंगे। तो कैवल्य पद का अर्थ है कि आपने साधना पद में जो छह महीने साधना या मेहनत की, अब उसके फलने का, पैदावार का वक्त आ गया है। बचे हुए दो हफ्तों में आपको खुद को संगठित करना है, और अपने लिए एक पैमाना तय करना है कि आप इसके नीचे नहीं जाएंगे। ऐसा करने के लिए आपको कोई संकल्प नहीं लेना है, प्रतिज्ञा नहीं करनी है, बल्कि साधना करनी है। सिर्फ यह कहने से काम नहीं चलेगा कि ‘मैं इससे नीचे नहीं जाउंगा।’ अगर आप गुब्बारे में ढेर सारी हाइड्रोजन गैस भर देंगे तो यह नीचे नहीं आएगा, यह ऊपर ही जाएगा। इसके लिए आपको संकप्ल लेने की जरूरत नहीं हैं, क्योंकि संकल्प इसमें काम नहीं करेगा। अगर आप इसमें पर्याप्त गैस भरेंगे तो यह खुद ब खुद हवा में तैरेगा। यही चीज इंसानों पर भी लागू होती है। अगर आप इसमें यानी खुद में पर्याप्त ऊर्जा भर देंगे तो यह नीचे नहीं आएगा। फिर आप जो चाहे कीजिए, यह नीचे नहीं आएगा।

Love & Grace