सद्‌गुरुक्या लगाव या आसक्ति आध्यात्मिक विकास को रोक सकती है? अगर हमारे जीवन में लोगों के प्रति स्नेह और आसक्ति भरपूर हो तो क्या हमें अपने विकास के लिए अनासक्ति को अपनाना होगा? जानते हैं सद्‌गुरु से...

क्या आसक्ति दुखों का कारण है?

‘इच्छा ही दुखों का कारण है’ ऐसी सीख देने वालों के मुंह से आपने यह भी सुना होगा, ‘किसी व्यक्ति या वस्तु पर आसक्त न बनो, उस पर लगाव न रखो।

‘किसी के साथ कुछ भी हो जाए, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता’ ऐसी उपेक्षा या लापरवाही का भाव अनासक्त रहना है-ऐसा गलत अर्थ लेना निश्चय ही अपने आपको धोखा देना है।
मोह, आसक्ति या लगाव तुम्हारे विकास के पथ के रोड़े हैं’ यों कहकर वे लोग आपको धमकाते हैं।

आप तो स्नेह और आसक्ति के साथ जीने के अभ्यस्त हैं। इसलिए उपर्युक्त वर्जना को सुनकर आप पशोपेश में पड़ सकते हैं।

‘किसी के साथ कुछ भी हो जाए, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता’ ऐसी उपेक्षा या लापरवाही का भाव अनासक्त रहना है-ऐसा गलत अर्थ लेना निश्चय ही अपने आपको धोखा देना है।

किसने कहा, लगाव होने पर विकास नहीं होगा?

धरती के साथ आसक्त होकर जब पेड़ अपनी जड़ों को माटी के अंदर गहराई से फैलाता है तभी वह स्वस्थ रूप में पनपता है; अनेक पक्षियों को आश्रय देता है; हवा में प्राणवायु का प्रवाह करता है; फलों को प्रदान कर उपकार करता है। यदि उसे धरती से अलग कर दें, उसे उखाडक़र फेंक दें तो नष्ट हो जाता है।

प्रकृति की तरह ही - यह हम पर भी लागू होता है

आपके विषय में भी यही बात सही है... किसी के कहने में आकर यदि आप स्नेह-बंधन के धरातल से अपने आप को जबर्दस्ती छुड़ाने की कोशिश करेंगे तो निश्चित रूप से स्वयं को घायल कर लेंगे।

दुख के आधारभूत कारण को सही ढंग से समझे बिना यह घोषणा कर देते हैं-इच्छा या आसक्ति से ही दुख पैदा होता है। आसक्ति रखने पर दुख कब होता है?
यदि आपकी सहज प्रकृति स्नेह करने की ओर आसक्त रहने की है तो आप अपनी प्रकृति को बदलने का प्रयत्न मत कीजिए।

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कोई व्यक्ति मेंढक को लेकर शोध कर रहा था मेंढक को उसने इस तरह प्रशिक्षित किया था कि यदि वह कहता ‘कूदो’ तो मेंढक तुरंत कूदता। शोध के दौरान वह मेंढक की एक टांग को काटने के बाद बोला ‘कूदो’। बेचारा मेंढक तीन टांगों के साथ थोड़ी मुश्किल से कूद पाया। दूसरी टांग काटकर उसने कहा ‘कूदो’, तब भी मेंढक कष्ट के साथ कूदा। तीसरी टांग काटने पर अत्यंत वेदना के साथ एक टांग से किसी तरह कूदा था। अंत में चौथी टांग को भी काटकर उसने आदेश दिया ‘कूदो’। सरकने में असमर्थ होकर मेंढक ने उसे कातर दृष्टि से देखा वह तो बार-बार मेंढक को कूदने के लिए कहते हुए चिल्लाने लगा।

मेंढक बिल्कुल हिला नहीं।

उस व्यक्ति ने अपने शोध का निष्कर्ष इस प्रकार लिखा-‘चारों टांगों को निकाल देने पर मेंढक की श्रवण-शक्ति समाप्त हो जाती है।’

इसी तरह कुछ लोग कोई बात होने पर और किसी नतीजे पर पहुंच कर सिद्धांतों की स्थापना कर देते हैं। दुख के आधारभूत कारण को सही ढंग से समझे बिना यह घोषणा कर देते हैं-इच्छा या आसक्ति से ही दुख पैदा होता है। आसक्ति रखने पर दुख कब होता है?

आसक्ति नहीं मैं और मेरा का विचार दुःख देता है

आपके बच्चे को स्कूल से ला रहा रिक्शा आपकी आंखों के सामने उलट जाता है। तब आप क्या करेंगे? रिक्शे की ओर भागेंगे। नीचे गिरे हुए बच्चों में से पहले अपने बच्चे को उठाएंगे।

बच्चों के प्रति स्नेह करने का आपका दावा हो तो आप किसी भी बच्चे को उठा सकते थे।

असल में वहाँ बच्चों के प्रति स्नेह काम नहीं कर रहा था। ‘वह अपना बच्चा है’ यों उसके साथ निजी संबंध जोडऩे की भावना ने ही उस समय आपको संचालित किया था। ‘मैं’ और ‘मेरा’ का विचार उभर आया था।

जब तक कोई व्यक्ति आपका मित्र बना रहता है तब तक उनसे स्नेह करते हैं। जब वह दुश्मन बन जाता है तब उससे नफरत पैदा हो जाती है। बताइए, पहले उसे केवल व्यक्ति मानकर आप स्नेह करते थे? नहीं न? ‘वह अपना मित्र है’ यही मानकर आप उस पर आसक्त हुए थे।

आसक्ति कब परेशानी बनती है?

किसी भी रिश्ते में खुद को हटाकर दूसरे को आगे रखते हुए उससे स्नेह करना आपके लिए संभव नहीं था।

इच्छा-अनिच्छा के नाम पर यदि हम अपनी दृष्टि को संकुचित बना लेंगे तो कितनी ही अनोखी बातें अपनी पसंद की सूची में स्थान नहीं पाएंगी।
अपने को आगे रखकर ही किसी के प्रति आसक्त हुए थे। इस तरह एक संकीर्ण दायरे में अपने को समेटते वक्त, आसक्ति रखें तब भी दिक्कत होती है, आसक्ति को हटाने पर भी समस्या होती है।

मेरे पास ‘योग’ सीखने के लिए आने वालों में कुछ लोग शिकायत करते हैं कि कुछ चीजें उन्हें पसंद नहीं हैं। तब मैं उन्हें एक कागज देता और कहता कि जो चीजें पसंद हैं उनकी सूची बनाएं।

काफी देर तक दिमाग पर जोर डालने के बाद वे लोग कुछ लिखकर मुझे वह कागज लौटाते हैं। उसमें आधी-दर्जन चीजों के नाम लिखे होंगे। मैं पूछता, ‘इतने विशाल जगत में आपकी पसंद की चीजें बस छह-सात ही हैं?’ उनसे कोई जवाब देते न बनता।

इच्छा-अनिच्छा के नाम पर यदि हम अपनी दृष्टि को संकुचित बना लेंगे तो कितनी ही अनोखी बातें अपनी पसंद की सूची में स्थान नहीं पाएंगी। नतीजन इस जगत की पूर्णता का अनुभव करना आपके लिए कभी संभव नहीं होगा।

सबको खुद में शामिल करना ही विकास है

अनासक्त होकर सब से अलग-थलग रहना स्वतंत्रता नहीं है... विकास नहीं है। सबको आत्मसात् करते हुए विश्वरूप देखना ही वास्तविक विकास है।

‘मैं, मेरा’  के विचार को हटाकर, जब आप थोड़ा-थोड़ा करके जगत के साथ पूर्ण आसक्त बनेंगे, तब आपका जीवन परिपूर्ण बन जाएगा।
जब वायु और सुगंध एक दूसरे पर पूर्ण आसक्त होकर एकाकार होती हैं तो एक से दूसरे को अलग करके देखना संभव नहीं होता।

किसी पर आपकी आसक्ति में भी यही गहनता रहनी चाहिए।

आप उनके साथ यों पूर्ण रूप से जुड़ जाएं, इस तरह एकाकार हो जाएं कि दोनों को अलग करके देखा न जा सके। तब ‘अन्य’ या ‘पराया’ के बोध के लिए स्थान कहां?

तब यह सवाल ही नहीं उठता कि उसके साथ मिलकर रहें या उससे हटकर रहें। तब यह प्रश्न भी नहीं उठता कि उस पर आसक्ति रखें या न रखें। फिर काहे का दुख और कैसा दर्द?

इस जीवन में एक जीव को अपने प्राण-समान प्रिय मानकर उसे स्वीकार करने के समान मिठास से भरा अनुभव और कौन-सा हो सकता है।  ‘मैं, मेरा’  के विचार को हटाकर, जब आप थोड़ा-थोड़ा करके जगत के साथ पूर्ण आसक्त बनेंगे, तब आपका जीवन परिपूर्ण बन जाएगा।