सद्‌गुरुहमारी परंपरा में अक्सर किसी परिवार, कुल या फिर व्यक्ति विशेष के अपने इष्ट देवता होते हैं। क्या हम खुद ही अपना इष्ट देव चुन सकते हैं? क्या इष्ट देव आध्यात्मिकता उन्नति दे सकते हैं?

इष्ट देवता एक साधन है

प्रश्न: सद्‌गुरु, क्या आप हमें ‘इष्ट देवता’ के बारे में कुछ बताएंगे? जैसे मेरे इष्ट देवता हनुमान जी हैं। अपने इष्ट देवता की मौजूदगी को महसूस कर पाना क्या वाकई संभव है? अगर हां तो सच्चे अनुभव और मन के वहम के बीच फ र्क कैसे किया जाए? कैसे हम इष्ट के साथ अपने संबंध को बनाए रख सकते हैं?

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सद्‌गुरु: सबसे पहले आपको यह समझना होगा कि इष्ट देवता का मतलब है आपकी पसंद का देवता। इसका मतलब है कि आपने देवता को बनाया। हो सकता है कि आपने भावनात्मक रूप से कोई देवता बना लिया - दरअसल आपने ऊर्जा का एक स्वरूप तैयार कर लिया, जिसके साथ आप एक खास तरीके से जुड़े रहते हैं। लेकिन यह कोई ऐसे देवता नहीं होते जो स्वर्ग से उतरकर आए हों।

हनुमान जबर्दस्त शक्ति और भक्ति के प्रतीक हैं। इन चीजों को अपने जीवन का अंग बनाएं। आपके जीवन में आश्चर्यजनक रूप से बदलाव आएंगे। आप बाल की खाल क्यों निकालते हैं कि यह वास्तविक है या नहीं?
इन्हें आपने यहीं बनाया है। अब सवाल यह है कि आप ऐसी चीजों को बनाते क्यों हैं? पहली बात तो यह है कि यह एक तरह का उपकरण या साधन है। उपकरण वह चीजें भी कर सकता है, जो आप आम तौर पर नहीं कर सकते। उपकरणों को इस्तेमाल करने की योग्यता होने के कारण ही इंसान इस धरती पर सबसे प्रभावशाली ताकत है।

आप एक माइक्रोफोन के जरिए अपनी बात दूर तक पहुंचा सकते हैं। माइक्रोफोन आपकी आवाज को केवल बढ़ा रहा है। माइक्रोफोन आपके लिए तभी कारगर है जब आप बोल सकते हैं। अगर आप बोल ही नहीं पाते तो माइक्रोफोन आपके लिए बेकार होता। यानी उपकरण आपकी योग्यताओं को बढ़ाने का काम करते हैं। तो हमने इसी तरह से उपकरण के रूप में ऊर्जा के स्वरूप स्थापित कर लिए हैं, जिनके साथ हमारा बेहद गहरा संबंध है। लेकिन ये सभी स्वरूप ऊर्जा-पिंड नहीं हैं। इनमें से कई तो केवल भावनाओं की उपज हैं, क्योंकि जो कोई इंसान भक्ति में होता है, वह इस बात की परवाह नहीं करता कि ऐसी किसी चीज का अस्तित्व है या नहीं। उसे बस अपनी भावनाओं की शक्ति के बारे में पता होता है। जिस तरह से आप अपनी बुद्धि की शक्ति का इस्तेमाल करते हैं, उसी तरह आप अपनी भावनाओं की शक्ति का इस्तेमाल करके भी शानदार काम कर सकते हैं।

जब आप एक भक्त बन जाते हैं, तब इससे फ र्क नहीं पड़ता कि आपकी भक्ति किसके लिए है - किसी देवता, बंदर या भैंसे के लिए। बस आप समर्पित होते हैं। चूंकि आपमें भक्ति है, आप समर्पित हैं, इसलिए आपका रूपांतरण होगा। यह रूपांतरण देवता के द्वारा नहीं, आपकी भक्ति के द्वारा होगा। अगर आप किसी से प्रेम करने लगें, भले ही वह शख्स बेवकूफ ही क्यों न हो, तो प्रेम करने के कारण आप भी खूबसूरत हो जाते हैं। किसी देवता के प्रेम में पडऩे का फायदा यह है कि वह आपको निराश नहीं करेंगे। इंसानों से आपको निराशा मिल सकती हैं। इसलिए नहीं कि उनमें कोई कमी है, बल्कि इसलिए क्योंकि आपकी उनसे अपेक्षाएं अवास्तविक होती हैं। एक काम करके देखिए। कोई ऐसा शख्स ढूंढिए जिसे आपने प्रेम किया और अब आपको उससे समस्या होने लगी है। अब उन उम्मीदों की सूची बनाइए जो आपने उस शख्स से लगा ली थीं। अब खुद से पूछिए कि अगर आप उनकी जगह होते तो क्या आप उन उम्मीदों को पूरा कर पाते? आप पाएंगे कि उन उम्मीदों को पूरा कर पाना संभव नहीं है। लेकिन आप चाहते हैं कि वे इन उम्मीदों को पूरा करें, क्योंकि आपको लगता है कि वह तो सुपरमैन हैं। सोचने में अच्छा लग सकता है, लेकिन सच्चाई तो यही है कि वह भी आपकी ही तरह एक आम इंसान है।

इष्ट देवता प्राण प्रतिष्ठित हो सकते हैं

अब हनुमान की बात पर आते हैं। वह सुपरमैन हैं। बस एक पूंछ है और चेहरा थोड़ा अलग है, बाकी तो वह सुपरमैन ही लगते हैं। आप कह सकते हैं कि वह सुपर सुपरमैन हैं। तो अगर आपके पास हनुमान की ऐसी मूर्ति है जिसकी प्राण प्रतिष्ठा हुई है और आपको वहां कुछ खास महसूस होता है तो हो सकता है कि इसमें कुछ सच्चाई भी हो। नहीं तो यह सब आपकी भावनाएं ही हैं। तो अब सवाल है कि जो आपके साथ होता है वह वास्तविकता है या मतिभ्रम? मैं कहूंगा कि इससे कोई फ र्क नहीं पड़ता। बल्कि आपके मन में जो भी हो रहा है वह सब मतिभ्रम ही है। बताइए है या नहीं?

प्रश्न: जी हां।

सद्‌गुरु: बस अब आपको यह सीखना है कि आपका मतिभ्रम आपके लिए काम करे, आपके खिलाफ नहीं। विचारों व भावनाओं का यही काम है। मैं आपके विचारों और भावनाओं की मूलभूत रचना के बारे में बात कर रहा हूं। वे एक नाटक की तरह हैं, एक मनोवैज्ञानिक नाटक। क्या आप अपने इस मनोवैज्ञानिक नाटक का इस्तेमाल अपने जीवन को बेहतर बनाने में करेंगे या इस नाटक से खुद को बर्बाद कर लेंगे? ये दोनों ही विकल्प आपके पास हैं। आपके मन में जो कुछ भी होता है, वह नाटक ही है।

जब आप एक भक्त बन जाते हैं, तब इससे फ र्क नहीं पड़ता कि आपकी भक्ति किसके लिए है - किसी देवता, बंदर या भैंसे के लिए। बस आप समर्पित होते हैं। चूंकि आपमें भक्ति है, आप समर्पित हैं, इसलिए आपका रूपांतरण होगा।
उसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है। आप यहां बैठकर जो चाहे सोच सकते हैं। जरूरी नहीं कि इसका वास्तविकता से संबंध हो ही। लेकिन सवाल आपके मतिभ्रम को लेकर है। क्या वे आपकी बेहतरी की दिशा में काम कर रहा है या वह आपको जीवन में पीछे धकेल रहा है? क्या वह आपके खिलाफ काम कर रहा है? इसलिए यह चिंता न करें कि कोई चीज वास्तविकता है या मतिभ्रम।

कुछ साल पहले की बात है। हो सकता है मैंने पहले भी इसके बारे में बताया हो। ईशा होम स्कूल का वह पहला साल था। मुझे नहीं पता कि वह बच्चा अब भी स्कूल में है या वहां से पास होकर जा चुका है। जैसे ही मैं स्कूल में दाखिल हुआ वह मेरे सामने आया और पूछा - सद्गुरु यह जीवन सच्चाई है या कोई सपना है? मैंने कहा - देखो जीवन एक सपना ही है, लेकिन यह सपना सच है। अब जीवन की दक्षता इसमें है कि आप कुछ ऐसा करें कि आपके सपने आपके लिए काम करें, आपके खिलाफ नहीं। अगर सपना आपके खिलाफ काम करे तो वह एक राक्षस के रूप में बदल जाएगा। अगर सपना आपके लिए काम करे तो वह ईश्वरीय हो जाएगा। इसलिए कुछ ऐसा कीजिए कि हनुमान आपके हित में काम कर पाएं, आपके खिलाफ नहीं। उनकी पूंछ से पिटना नहीं है आपको।

हनुमान जबर्दस्त शक्ति और भक्ति के प्रतीक हैं। इन चीजों को अपने जीवन का अंग बनाएं। आपके जीवन में आश्चर्यजनक रूप से बदलाव आएंगे। आप बाल की खाल क्यों निकालते हैं कि यह वास्तविक है या नहीं? इसे बस आपके लिए काम करना चाहिए। मैं आपसे पूछता हूं कि क्या आपके विचार वास्तविक हैं? नहीं यह सब बकवास है। विचार आते हैं और चले जाते हैं, रुकते नहीं, लेकिन आप कुछ ऐसा करते हैं कि वे विचार आपके पक्ष में काम करें, आपके खिलाफ नहीं। इस पूरे मनोवैज्ञानिक नाटक को आप देवता या राक्षस में से कुछ भी बना सकते हैं। मैं आपसे आग्रह करता हूं कि इन्हें ईश्वरीय शक्ति में बदलें। फि र आपका मन भी ईश्वर का स्रोत हो जाएगा।