सद्गुरुभक्त शब्द अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग मायने रखता है। मंदिरों के दर्शनार्थियों से लेकर घरों में पूजा-आरती और अन्य रीति-रिवाजों का पालन करने वालों को आमतौर पर भक्त कहा जाता है। हो सकता है कि एक भक्त का बाहरी रूप इनमें से किसी तरह का हो, लेकिन एक भक्त की मूल प्रकृति क्या होती है?


 

भक्त होने का अर्थ किसी चीज की कल्पना करना नहीं है। भक्त होने का मतलब है, आप समझ चुके हैं कि आपके विचार, आपकी कल्पना, आपकी याद्दाश्त इस जगत में किसी काम की नहीं। भक्त होने का मतलब किसी मतिभ्रम का शिकार होना भी नहीं हैशिक्षा का मतलब सर्टिफिकेट हासिल करना नहीं है। इसका मतलब खुद का विकास करना है।

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जब मैं भक्ति कहता हूं तो मैं ईश्वर के बारे में बात नहीं कर रहा हूं। मैं आपके शून्य हो जाने के बारे में बात कर रहा हूं। अगर आप शून्य की अवस्था में आ जाते हैं तो आप हर चीज को अपने भीतर समा सकते हैं, क्योंकि हर चीज शून्य में समा सकती है।

भक्त होने का मतलब किसी मतिभ्रम का शिकार होना भी नहीं है। भक्त होने का मतलब है कि वह अपने खुद के विचारों को, अपनी भावनाओं को कोई महत्व नहीं देता, क्योंकि वह जानता है कि वह कुछ भी नहीं है। वह किसी काम का नहीं है।
इस जगत में हर चीज शून्य में ही समाई हुई है। जब आप शून्य हो जाते हैं तो आप हर चीज को अपने भीतर समा सकते हैं। तो भक्ति का अर्थ बस यही है।

यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि हमने एक ऐसे समाज का निर्माण किया है जहां विचार को ही सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। देखा जाए तो यह बड़े ही दुर्भाग्य की बात है। विचार तो बहुत छोटी सी घटना है। विचार तो आपकी एकत्र की हुई स्मृति से ही लगातार अपना भोजन ले रहे होते हैं। और जो कुछ भी आपने एकत्र किया है, वह चाहे जितना भी बड़ा हो, भले ही पूरा विश्व ज्ञान कोष अपने दिमाग में इकठ्ठा कर लिया हो, फिर भी यह बहुत छोटा है और आपके सभी विचार उस क्षुद्रता से आ रहे हैं जिसे आप ज्ञान कहते हैं।

भक्ति बस एक सहज बोध है। एक भक्त को बेशक किसी चीज को अलंकृत करना नहीं आता हो, लेकिन वह जानता है कि वह क्या है और यही जानना उसके लिए काफी है। चूंकि वह जानता है कि वह क्या है इसीलिए वह इतना खूबसूरत इंसान बन गया है, इतना जबर्दस्त आनंदमय प्राणी बन गया है, उसे अपने भीतर संगीत महसूस होता है, शानदार नृत्य महसूस होता है, क्योंकि उसके पास जीवन का बोध है, अहसास है। उसे इसे समझने की परवाह नहीं, क्योंकि वह इसकी विशालता को देख लेता है। वह अपने अस्तित्व की तुच्छ प्रकृति को भी देखता है। उसने इसे स्पर्श किया है, इसीलिए वह इतना पवित्र और भाग्यवान नजर आता है, इसलिए नहीं कि उसने सब कुछ जान लिया है। वह जानने की ज्यादा चिंता नहीं करता, क्योंकि वह भक्त है।

तो इस तरह भक्त झुक जाता है, जिससे कि वह चीजों के प्रति ग्रहणशील बन सके। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे आप समझ सकें, जिसमें दर्शन ढूंढ़ सकें, पीएचडी लिख सकें। यह एक ऐसी चीज है जिसके प्रति आपको ग्रहणशील होना है। भक्त होने का अर्थ किसी चीज की कल्पना करना नहीं है। भक्त होने का मतलब है, आप समझ चुके हैं कि आपके विचार, आपकी कल्पना, आपकी याद्दाश्त इस जगत में किसी काम की नहीं। भक्त होने का मतलब किसी मतिभ्रम का शिकार होना भी नहीं है।

यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि हमने एक ऐसे समाज का निर्माण किया है जहां विचार को ही सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। देखा जाए तो यह बड़े ही दुर्भाग्य की बात है। विचार तो बहुत छोटी सी घटना है।
भक्त होने का मतलब है कि वह अपने खुद के विचारों को, अपनी भावनाओं को कोई महत्व नहीं देता, क्योंकि वह जानता है कि वह कुछ भी नहीं है। वह किसी काम का नहीं है। वह नहीं सोचता कि ईश्वर को देख लेना महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसके लिए वह महत्वपूर्ण नहीं है, जो वह करता है। वह जानता है कि अपने विचार, अपनी भावनाएं बनाने के लिए इस अस्तित्व में वह बेहद छोटा है। अगर आप इस बात को समझ पाते हैं तो आप स्वाभाविक रूप से भक्त हैं। हर चीज को शिव के रूप में जानने का मतलब है कि आप हर चीज को अपने से बड़ा मानकर चल रहे हैं क्योंकि इस सृष्टि में एक भी ऐसी चीज नहीं है जिसे आप अभी पूरी तरह से समझ सकें, उसे पूरी तरह ग्रहण कर सकें। न कोई कीड़ा, न कोई अमीबा, न कोई परमाणु, इनमें से किसी को भी आप उसकी पूरी गहराई और सभी पहलुओं के साथ आत्मसात नहीं कर सकते। तो इस तरह हर चीज आपकी समझ से परे है।