सद्‌गुरुएक खोजी शेरिल सिमोन ने अपनी रोचक जीवन-यात्रा को ‘मिडनाइट विद द मिस्टिक’ नामक किताब में व्यक्त किया है। इस स्तंभ में आप उसी किताब के हिंदी अनुवाद को एक धारावाहिक के रूप में पढ़ रहे हैं। पेश है इस धारावाहिक की अगली कड़ी जिसमें वे सद्‌गुरु के साथ कार में यात्रा करने के अनुभव को साझा कर रहीं हैं।

सद्‌गुरु की सभी से मुलाक़ात

लगभग आधा घंटे तक सद्‌गुरु एक-के-बाद-एक सबसे बातें करते रहे, शुभकामनाएं लेते-देते, मौज-मस्ती करते, बड़े ध्यान से सबको सुनते रहे।

उनके मुखमंडल से छिटकती सूर्य-जैसी ऊर्जा हर किसी के चेहरे को दमका रही थी। आखिरी बार प्रणाम के बाद सद्‌गुरु और मैं फुरसत से अपना सामान लेने बैगेज क्लेम की तरफ  बढ़ गये।
साबुन वाली महिला से लेकर फ्रिस्बी वाले आदमी तक, सबके-सब उनको दोबारा देखकर बहुत खुश लग रहे थे। उनके मुखमंडल से छिटकती सूर्य-जैसी ऊर्जा हर किसी के चेहरे को दमका रही थी। आखिरी बार प्रणाम के बाद सद्‌गुरु और मैं फुरसत से अपना सामान लेने बैगेज क्लेम की तरफ  बढ़ गये। बैगेज की प्रतीक्षा करते समय मैंने उनको मिले उपहारों में से एक पर नजर डाली ‐ यह दिव्यदर्शी सूफी कवि रूमी के बारे में एक पुस्तक थी। मैं जानती थी कि रूमी की कविता चैतन्य से प्रेम का उत्सव मनाती है। इसलिए मैंने रफ़्तार से पूछा, ‘क्या प्रेम ही वह परम संभावना है जो कोई व्यक्ति चाह सकता है?’

उसी समय लगेज बेल्ट पर उनका सूटकेस आ गया। वे उसे लेने के लिए झुके तो मुझे लगा कि वे मेरा सवाल नहीं सुन पाये होंगे। सूटकेस उठाकर हम कार की तरफ चल पड़े। फुटपाथ पर उनके सूटकेस के पहिये खडख़ड़ाने लगे और कार की ओर जाते समय उनका शोर चमकदार रोशनियों वाले पार्किंग डेक की ईंटों वाली दीवारों से टकरा कर गूंजने लगा।

सद्‌गुरु कार चलाने के लिए तैयार हो गए

मैं जानती थी कि सद्‌गुरु जितने स्थिरता-पसंद हैं उतने ही गति-पसंद भी।

भारत में जहां गति-सीमा का होना-न-होना बराबर है, वे अपनी कार को ‐ और अपने शिष्यों को ‐ उनकी चरम सीमा तक दौड़ाने के लिए जाने जाते हैं।
इसलिए मैंने पूछ लिया कि क्या वे कार चलाना चाहेंगे? सभी जानते हैं कि उनको कार चलाना बहुत अच्छा लगता है ‐ वह भी रफ़्तार से ‐ लेकिन मैंने सोचा शायद इतनी लंबी उड़ान के बाद वे आराम करना चाहें। पर बिलकुल नहीं! मैंने हंसकर चाभी देते हुए अपनी आंखें घुमायीं। मुझे मालूम होना चाहिए था कि ऐसा सुनहरा मौका वे हाथ से जाने ही नहीं देंगे। मैंने एक बार फिर गुरु की कार चालक के रूप में प्रसिद्धि की बात सोचते हुए यात्री-सीट पर बैठ कर सीट बेल्ट को कसकर बांध लिया। भारत में जहां गति-सीमा का होना-न-होना बराबर है, वे अपनी कार को ‐ और अपने शिष्यों को ‐ उनकी चरम सीमा तक दौड़ाने के लिए जाने जाते हैं।

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उन्होंने कार चालू करने के लिए चाभी डाली और पैनी नजर डालकर मुझसे पूछा, ‘कितनी रफ़्तार से चलाऊं?’

पता नहीं उन्होंने मुझसे पूछने का कष्ट क्यों उठाया, फैसला मेरे हाथ में था ही नहीं! मैं जवाब देती भी तो जिस तरह से किलकारी मारते हुए वे पार्किंग गैराज से कार बाहर निकाल रहे थे मुझे सुन ही नहीं पाते।

तेज़ रफ़्तार से चलती कार

अटलांटा से पहाडिय़ों तक पहुंचने में आम तौर पर लगभग तीन घंटे लगते हैं।

‘ओह!’ वे मुस्कराते हुए बोले, ‘मैं जीवन की हर चीज का धुनी हूं, बस कार चलाना उन थोड़ी-सी शेष चीजों में है, जो दूसरे कामों और समय की कमी के कारण अब तक संभव नहीं हो पाया है।’
पर गियर बदलते हुए कुछ ही मिनटों में हम शहर से बाहर आ गये थे और इस यात्रा का एक नया रेकॉर्ड बनाने के लिए हमारी कार सर्राने लगी थी। मैं सोच रही थी कि अधिकतर लोगों को बी.एम.डब्ल्यू. कन्वर्टिबल में इंटर-स्टेट राजमार्ग पर एक भारतीय योगगुरु के तेज रफ़्तार से कार दौड़ाने का विचार कितना बेतुका लगता होगा! पर मैं मन-ही-मन मुस्कराती हुई आराम से बैठी रही। मैं जानती थी कि मैं बंदूक की गोली की तेजी से जा रही हूं - एक अविश्वसनीय साबित होने वाली यात्रा पर - कार में ही नहीं, उसके बाद भी।

मुझे भारत में सद्‌गुरु की कार चलाने की इस डरावनी शैली का बड़ा अनुभव था, इसलिए उनसे पूछने के लिए यह सवाल सही लग रहा था, ‘सद्‌गुरु, आपको इंजनों और रफ़्तार की ऐसी धुन क्यों है?’

‘ओह!’ वे मुस्कराते हुए बोले, ‘मैं जीवन की हर चीज का धुनी हूं, बस कार चलाना उन थोड़ी-सी शेष चीजों में है, जो दूसरे कामों और समय की कमी के कारण अब तक संभव नहीं हो पाया है।’

सद्‌गुरु का गाड़ियों से लगाव

उन्होंने बड़ी सावधानी से लेन बदलते हुए कहा, ‘मुझे बचपन से ही हमेशा हर तरह की गाडिय़ां पसंद रही हैं। पहले मेरा सबसे बड़ा सपना होता था एक साइकिल लेने का। जब वह मुझे मिली तो मैंने उसके साथ बहुत समय बिताया। मेरी बाइक में हमेशा नए टायर होते थे। वे थोड़ा भी खराब हो जाते तो मैं नए लगवा लेता। यह शान और तामझाम की बात नहीं थी। बाइक देखने में चाहे जैसी हो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था। नए टायर होने पर बाइक चलाने में एक अलग आनंद आता था और मुझे यही चाहिए था।’

‘मैं जानती हूं आप कैसा चलाते हैं, इसलिए मैं कल्पना कर सकती हूं कि आपने अपनी बाइक के लिए ढेरों टायर बदले होंगे। बार-बार नए टायर खरीदने के लिए आपको इतने पैसे कहां से मिल जाते थे?’ मैंने पूछा।

सद्‌गुरु खुद ही करते थे पैसों का इंतज़ाम

सद्‌गुरु ने हंसकर कहा, ‘बचपन में ही पैसा कमाने के लिए मैंने पक्का कर लिया था कि मुझे तरह-तरह के छुटपुट काम-धंधे मिलते रहें।’

मैं खतरनाक समझे जाने वाले काम कर डालता था और रोमांच या पैसे के लिए मैं किसी भी चुनौती का सामना करने को तैयार हो जाता था।
‘जैसे कि?’ मैंने पूछा। मैं समझना चाहती थी कि भारत में पलने वाला कोई बच्चा पैसे कमाने के लिए क्या काम कर सकता है।

‘पास में एक शोध केंद्र था जो अपने अहाते से जहरीले सांपों को बाहर निकालने के बहुत अच्छे पैसे देता था। वे कोबरा और वाइपर को बाहर निकालने के लिए उनके आकार के हिसाब से पैसे देते थे। मैं तोते भी पकड़ता था। मैं अपनी बाइक को हमेशा दुरुस्त रखना चाहता था और अपने बाइक अभियानों के लिए पैसे जुटाना चाहता था, इसलिए वह काम पाकर मैं बहुत खुश था। इसके अलावा कोई दूसरा आदमी शायद ऐसा काम कर भी नहीं सकता था। मैं खतरनाक समझे जाने वाले काम कर डालता था और रोमांच या पैसे के लिए मैं किसी भी चुनौती का सामना करने को तैयार हो जाता था।’