क्या यह वो भारत वर्ष नहीं है?
बचपन में स्कूल की किताबों में हम पढ़ा करते, 'जहां हर पेड़ है चंदन जहां हर बाग है नंदन, जहां देवता करते मनुज पुत्र का अभिनंदन। जिस धरती पे बहती गंगा, जहां पर्वतराज खड़ा है- वो भारतवर्ष हमारा है।' इस धन्य भूमि में पैदा हुए अवतारी पुरुषों की तब हमें कथा सुनाई जाती ऋषि-मुनियों के त्याग और समर्पण का आदर्श हमारे सामने रखा जाता। योद्धाओं व देशभक्तों की गाथाएं सुनकर हमारे अंदर एक नई चेतना का संचार होता और हम राष्ट्र प्रेम से लबालब भर जाते। गर्व से हम कुछ यूं फूल जाते कि दिल में गुदगुदी होती और राष्ट्र निर्माण में अपनी भावी भूमिका को लेकर हमारे अरमानों के पंख निकल आते।
कॉलेज पहुंचने के बाद अपने देश के हालात व हकीकत से हम धीरे-धीरे वाकिफ होने लगे। अपने निजी अनुभवों, समाचार पत्रों और टीवी चैनलों के जरिए हमारे अंदर एक ऐसे भारत की तस्वीर बनने लगी जो भूख, गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार और चरमराती अर्थव्यवस्था से जूझ रहा था। वहीं दूसरी तरफ विज्ञान, तकनीक, मनोविज्ञान और अर्थव्यवस्था में पश्चिमी देशों की दिन दूनी तरक्की हमारी प्रेरणा का विषय बनने लगी। तब पश्चिमी संगीत सिनेमा और फिलॉसफी में हमारी रुचि बढऩे लगी- हमें अब वही भाने लगे। वक्त के साथ-साथ हमारा भारतीय होने का गर्व मिटने लगा और वो गुदगुदी भी गायब हो गई। जीवन की दशा और दिशा को लेकर हमारे अंदर एक भारी उहापोह थी।
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इसी उहापोह में एक दिन हम पूर्व चुनाव आयुक्त टी एन शेषन को सुनने पहुंचे। वे शिक्षक और छात्रों की एक सभा को संबोधित कर रहे थे। अपनी ओजपूर्ण व प्रभावशाली शैली में उन्होंने सभा से पूछा, 'हमारा भारत महान क्यों है? क्या इसलिए कि यहां गंगा बहती है? क्या इसलिए कि यहां हिमालय है?' कोई उत्तर न मिलने पर उन्होंने बड़े गर्व से कहा, 'नहीं, क्योंकि हमारा दर्शन महान है।' अगले कई दिनों तक मैं लाईब्रेरी में दर्शन की पुस्तकें छानती रही, पर सरदर्द के अलावा और कुछ नहीं मिला। फिर हमने अपना सरदर्द मिटाया था मूवी देखकर, क्लासिकल रॉक संगीत पर थिरकककर और कुछ कविताएं लिखकर।
जीवन के अर्थ और मकसद की तलाश में भटकते एक दिन हम सांई इंटरनेशनल सेंटर पहुंचे, जहां सद्गुरु 'इनर इंजीनियरिंग' पर व्याख्यान देने वाले थे। गहन आंतरिक अनुभव से मुखरित उनकी तर्कपूर्ण, विनोदभरी और सरलता से सराबोर वाक शैली ने हमें मंत्रमुग्ध कर दिया। उनकी वाणी से मुखरित हर पंक्ति में हमें अपने कई-कई प्रश्नों के जवाब मिल गए। अपने व्याक्चयान के अंत में जब उन्होंने हमसे प्रश्न पूछने के लिए कहा तो हम नि:शब्द बैठे रहे। वहां व्याप्त उनकी भव्य मौजूदगी में हमारे शब्द डूब चुके थे। धीमे कदमों से चलकर वे हमारे बीच खड़े हो गए। उनके शांत व निश्चल चेहरे पर खिले माधुर्य से एक अलौकिक शक्ति प्रवाहित हो रही थी, जिससे मुग्ध होकर कई उनके चरणों में थे तो कई उनका आलिंगन करके धन्य हो रहे थे।
अगले दो दिन के योग कार्यक्रम में सद्गुरु ने हमें योग की प्राचीन विधियों में दीक्षित किया और साथ ही दिया एक अनूठा नजरिया, जिससे जीवन को एक दिशा मिली एक अर्थ और मकसद मिला। जैसे-जैसे हम इस राह पर बढ़ते गए भारतीय दर्शन व संस्कृति की हमारी समझ निखरती गई जो कभी किसी पुस्तक में नहीं मिली। जैसे-जैसे हम अपनी पसंदों, नापसंदों और पूर्वाग्रहों की हदों को पार करते गए, यह स्पष्ट होता गया कि इंसान रूपी समस्या का समाधान वैज्ञानिक खोजों और आर्थिक खुशहाली में नहीं है, इसके लिए तो मानवीय चेतना को खिलकर अपने चरम पर पहुंचना होगा और इसे संभव बनाने के सभी सूत्र भारतवर्ष रूपी माला में पिरोए हुए हैं। अब हमें फिर गर्व है अपने भारतीय होने का और अपनी भावी भूमिका को लेकर अब हमारे दिल में फिर गुदगुदी होने लगी है।
डॉ. सरस, ईशा लहर संपादक