हैंड्स ऑफ ग्रेस - शिल्प कलाओं का उत्सव
भारतीय शिल्प कलाओं को फिर से जीवित करने और सहारा देने की एक कोशिश में ईशा फाउंडेशन ने ईशा योग केंद्र में हैंड्स ऑफ ग्रेस: शिल्प प्रदर्शनी (19-27 फरवरी 2014) का आयोजन किया है।
तिथि: 19-27 फरवरी, 2014
समय: प्रात: 11 बजे से रात्रि 10 बजे तक प्रतिदिन
प्रदर्शनी स्थल: ईशा योग केंद्र, वेलंगिरि पर्वत, कोयंबटूर
भारतीय शिल्प कलाओं को फिर से जीवित करने और सहारा देने की एक कोशिश में ईशा फाउंडेशन ने ईशा योग केंद्र में हैंड्स ऑफ ग्रेस: शिल्प प्रदर्शनी (19-27 फरवरी 2014) का आयोजन किया है। भारत के 15 से अधिक राज्यों के साठ समूह, उम्दा वस्तुओं का प्रदर्शन करेंगे जिनमें हाथ से बुने, ब्लॉक प्रिंट और कढ़ाई वाले वस्त्र, एसेसरीज, लोक कलाएं, मिट्टी के बरतन, पत्थर और धातु की शिल्पकला और जैविक सौंदर्य उत्पाद शामिल होंगे। इसके अलावा, शिल्प की कार्यशालाएं, प्रदर्शन, स्थानीय भोजन के स्टॉल, लोक संगीत, खेल और काफी कुछ होगा। यह एक अविस्मरणीय उत्सव होगा।
टशर सिल्क
संगठन: बेरोजगार महिला कल्याण संस्था
हैंडलूम: टशर सिल्क (जिसे भागलपुरी सिल्क के नाम से भी जाना जाता है)
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स्थान: झारखंड और बिहार
भारत के झारखंड और बिहार राज्यों में बुनकर सूत और करघों के साथ ही बड़े होते हैं। वे छोटी उम्र से ही खूबसूरत कपड़े तैयार करना शुरू कर देते हैं। सिल्क साड़ियां और शॉल बना कर बेचना उन महिलाओं की आय का मुख्य जरिया होता है।
झारखंड के गोड्डा जिले में स्थित कजरेल गांव में, रोजगार का मुख्य स्रोत कृषि और कोयला खनन था, जो मुख्य रूप से पुरुष किया करते थे। स्त्रियां ऐसे काम नहीं करती थीं, जिसके लिए उन्हें घर से बाहर जाना पड़े। उस समय दस्तकार के एक बुनकर निरंजन कुमार पोद्दार ने कजरेल की महिलाओं को कताई का अपना हुनर मांजने और घर बैठे पैसे कमा कर आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रोत्साहित किया। इस तरह दस्तकार की आर्थिक मदद से 1993 में “बेरोजगार महिला कल्याण संस्था” शुरू हुई।
उस समय बहुत सी महिलाएं बंधुआ मजदूर थीं और दस्तकार की शुरुआती आर्थिक सहायता इन महिलाओं को आजादी दिलाने के लिए दी गई थी। बाद में, दस्तकार ने डिजाइन, वेजीटेबल डाइंग, व्यापार आदि में सहयोग देते हुए इस संस्था की सहायता की।
अब यह संस्था एक छोटे से ग्रामीण उद्यम से बढ़कर एक व्यवस्थित गैर-सरकारी-संगठन(NGO) और सहकारी संस्था बन गई है। आज बिहार के 10 और झारखंड के 5 गांवों में इसकी मौजूदगी है। करीब 3800 महिला सदस्य टसर सिल्क बुनती हैं और लगभग 200 पुरुष प्रबंधन और बुनाई के बाकी पहलुओं से जुड़े हैं। चूंकि आजकल प्राकृतिक, पर्यावरण अनुकूल वस्त्रों की मांग बढ़ी है, जिसकी वजह से बेरोजगार महिला कल्याण संस्था और उसकी सहयोगी सहकारी संस्था का वार्षिक टर्नओवर 5 करोड़ रुपये से भी अधिक है।
टसर सिल्क का सूत एकत्रित करना और उसकी बुनाई करना
टसर सिल्क साल, अर्जुन और साज नामक पेड़ों पर पाए जाने वाले जंगली रेशम के कीड़ों से एकत्रित किया जाता है। इसे अक्सर अहिंसक सिल्क कहा जाता है, इसे कभी-कभी तब उतारा जाता है, जब लार्वा ककून या कोवा से निकल जाता है। यह सिल्क गहरे सुनहरे रंग का होता है और इसकी बुनावट महीन होती है।
निरंजन छत्तीसगढ़ और बिहार से कच्चा माल लेकर उसपर आगे की कार्यवाही करते हैं- उसे संशोधित करते हैं और फिर कताई के लिए महिलाओं को देते हैं। सितंबर के महीने में ककून की कीमत सबसे कम होती है और उसे खरीदने का यह सबसे अच्छा समय होता है। कच्चे माल की कीमत बदलती रहती है और पिछले दस सालों में यह एक खारी (1280 ककून) के लिए 700 रुपये से बढ़कर 4500 रुपये हो गया है। इसकी वजह यह है कि अब ककून मिलना मुश्किल हो गया है।
काम का बंटवारा टसर सूत के भार के आधार पर किया जाता है। कीमत खादी ग्रामोद्योग के अनुसार तय की जाती है। महिलाएं जितनी कताई करती हैं, उन्हें प्रति किलो के हिसाब से भुगतान किया जाता है। कताईकार या कापतीन दिन में 4 से 6 घंटे सिल्क सूत की कताई करते हैं। वे औसतन 2 से 3 किलो सूत प्रतिदिन कात सकते हैं। इसके बाद कते हुए सूत को बुनाई के लिए बुनकर को दिया जाता है। ज्यादातर बुनकर बागिया गांव में रहते हैं। जरूरत पड़ने पर रंगाई का काम भी बुनकर का परिवार ही करता है। इस्तेमाल किए जाने वाले रंग बाजार की मांग के मुताबिक प्राकृतिक और रासायनिक दोनों तरह के होते हैं। अनार, मंजीत, रतनजोत, प्याज के छिलके, जामुन के पेड़ की छाल, मेंहदी, कटहल के पेड़ की छाल, नील, सीसम के छाल से रंग निकाले जाते हैं।
तैयार माल को 20 से 25 फीसदी मूल्य बढ़ाकर बेचा जाता है। उस पैसे को संस्था के संचालन के लिए इस्तेमाल किया जाता है। आज टसर को एक उत्तम महंगे उत्पाद के रूप में देखा जाता है जो मौका मिलने पर आधुनिक बाजार की अनिश्चितताओं का मुकाबला कर सकता है। इस संस्था की स्थापना के बाद से बिक्री में लगभग पांच गुणा से भी अधिक वृद्धि हो गई है।
2003 में भारतीय फैशन परिषद के वार्षिक सम्मेलन में, बिहार के एक बुनकर समूह द्वारा काते गए भागलपुरी सिल्क ने वर्ष के फैशन फ्रेब्रिक का ईनाम जीता। उसके बाद उन्होंने दस्तकारी हाट समिति के कई और पुरस्कार जीते हैं और शिल्प परिषद दिल्ली का ईनाम भी जीता है। यह महिला समूह कामयाबी की एक दुर्लभ दास्तान है क्योंकि सिर्फ 15 साल पहले इसके सदस्य बंधुआ मजदूरी करते थे।
आज यह संस्था अपने उत्कृष्ट नमूनेदार ओर रंगीन टसर कपड़ों, साड़ियों, शॉलों और स्टोलों के लिए प्रसिद्ध है। इस सूत से बने अलग-अलग उत्पाद इतने लोकप्रिय हुए कि शुरुआती सालों के दौरान शिल्प परिषद की प्रदर्शनी के पहले दिन ही सारा माल बिक जाता था। इसकी डिजाइन और कपड़ों में गहरे मटियाली और प्राकृतिक रंगों का मिश्रण था, साथ ही हलके बैंगनी या गुलाबी रंगों के शेड थे। पोद्दार कहते हें, “बुनाई में साड़ियों की पारंपरिक बुनाई के बदले कपड़ों की बुनाई में इस्तेमाल होने वाली बुनावट का असर अधिक है। इसलिए ट्विल, हेरिंगबोन, साटिन, डायमंड का अधिक प्रयोग होता है, जिन्हें दिलचस्प और विविध रंगों के साथ मिलाए जाने से वह उत्पाद अलग ही नजर आता है।”
हैंड्स ऑफ ग्रेस वर्कशॉप
यह कला और शिल्प की कार्यशाला (वर्कशॉप) प्रतिभागियों को कला के विभिन्न पहलुओं को सीखने में मदद करेगा। 3 दिन के इस वर्कशॉप में प्रतिदिन 2 घंटे की समय-अवधि होगी। कुल 6 घंटे के इस गतिविधि के बाद प्रतिभागी इस काबिल हो पाएंगे कि वो खुद अपनी कला और कौशल को तलाशें, तराशें और निखारें। इस वर्कशॉप्स के आयोजन का विवरण इस प्रकार है:-
20 से 22 फरवरी और 24 से 26 फरवरी
प्रात: 9.30 बजे से 11.30 बजे तक तथा सायं 3 बजे से 5 बजे तक
किसी भी विशेष जानकारी के लिए संपर्क करें -प्रीती मेहता -09821016666, चंद्रप्रभा -9443709905