Sadhguruक्या आपने कभी सोचा कि तीर्थयात्रा का असली मकसद क्या है? क्यों चढ़ते हैं हम ऊंची ऊंची पहाड़ें? दर-बदर भटकते क्यों हैं हम? आईए देखते हैं सद्‌गुरु क्या कहते हैं...

तमाम ज्ञानियों और योगियों की तपोभूमि के तौर पर पूजा जाने वाला हिमालय, दुनिया भर में आध्यात्मिक जिज्ञासुओं की आस्था का केंद्र है। सदगुरु को भी इन पवित्र पर्वतों से गहरा लगाव रहा है। इन पर्वतों के गूढ़ रहस्य को दूसरों के साथ बाँटने के मकसद से ईशा फाउंडेशन हर साल हिमालय में "ध्यान यात्रा” का आयोजन करता है।

ध्यान यात्रा के दो सप्ताह के कार्यक्रम के ज़रिये इन जादुई और भव्य पर्वतों की पावन ऊर्जा को अपने अंदर समाने का एक शानदार मौका मिलता है। इस यात्रा में शामिल लोग पैदल चलने और कैंपों में रहने के अलावा दुनिया की इस सबसे अनूठे जगह का अनुभव भी करते हैं जहाँ एक तरफ बर्फ से ढ़के पहाड़ हैं तो दूसरी तरफ हरियाली से सराबोर खूबसूरत घाटियां! इस अपूर्व प्राकृतिक छटा के बीच जैसे जैसे यात्रा आगे बढ़ती है, सत्संग की मस्ती नए-नए रंग भर देती है! शक्तिशाली ध्यान क्रियाएं साधकों को चेतना की उच्च अवस्थाओं में पहुंचा देतीं हैं। इसका असर लोगों को अपने दिमाग, शरीर और ऊर्जा के बीच के कोमल संबंधों पर भी महसूस होने लगता है, जिसका अंतिम लक्ष्य इन पर्वतों की गूढ़ शक्ति का आह्वान कर गुरु कृपा पाना है।

यात्रा के दौरान चलने, पहाड़ों पर चढ़ने और प्रकृति की मुश्किल परिस्थितियों का सामना करने की प्रक्रिया हमें अपने सीमित व्यक्तित्व का अहसास कराती है और हमें कृपा का पात्र बनाती है।

Subscribe

Get weekly updates on the latest blogs via newsletters right in your mailbox.

यात्रा की शुरुआत हरिद्वार से होती है। जैसे जैसे बस पहाड़ों की संकरी सड़कों, खूबसूरत झरनों और दूर तक फैले छोटे-छोटे गांवों से होकर आगे बढ़ती है, पर्वतमालाओं का असाधारण सौंदर्य खुलकर सामने आने लगता है। इस पूरी यात्रा का बंदोबस्त ईशा फाउंडेशन के उच्च एवं समर्पित शिक्षक करते हैं और अपने साथ यात्रा कर रहे हर व्यक्ति की व्यक्तिगत जरूरतों का पूरा ख्याल रखते हैं, जिससे यह अनोखी यात्रा उनके लिए यादगार बन जाती है।

तीर्थ यात्रा का मूल प्रयोजन आपको अपने बारे में बने ग़लत खयाल से वाकिफ कराना है। इस यात्रा के दौरान जब हम ट्रेकिंग करते हैं तो हमें पर्वतों की विशालता और अपनी सूक्ष्मता का अहसास होता है। लेकिन तीर्थयात्रा का मकसद हमें अपने व्यक्तित्व के बारे में हमारी सीमित सोच को बदलना है। यात्रा के दौरान चलने, पहाड़ों पर चढ़ने और प्रकृति की बेहद मुश्किल परिस्थितियों का सामना करने की प्रक्रिया हमें अपने सीमित व्यक्तित्व से ऊपर उठाती है। यह हमारी पहचान प्राण के स्तर पर ज़्यादा बढ़ा देती है।

प्राचीन काल में तीर्थयात्राओं की अधिकतर जगहें ऐसी होती थीं, जहां तक पहुंचने के लिए इंसान को बहुत शारीरिक व मानसिक मेहनत और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। ऐसा इसलिए था कि इस पूरी प्रक्रिया में इंसान खुद को जितना बड़ा समझता है, उससे कम महसूस करने लगे। लेकिन आज चीजें पहले की तुलना में बहुत आरामदायक हो गईं हैं। अब तो हम तीर्थयात्राओं के दौरान कुछ दूरी हवाई मार्ग से तो और कुछ ड्राइव करके सड़क से तय कर लेते हैं। पैदल चलकर तय करने के लिए तो बहुत थोड़ी दूरी ही रह जाती है।

इंसान शारीरिक रूप से करीब एक हजार साल पहले जितना शक्तिशाली था, उसकी तुलना में आज कुछ भी नहीं है। यह कोई विकास की प्रक्रिया नहीं है, क्योंकि आज हम यह भूल चुके हैं कि सुख सुविधा और आराम के तमाम साधनों का इस्तेमाल हमें कितना और किस तरह करना है। इन्होंने हमें बेहद कमज़ोर बना दिया है। ज़ाहिर है कि तीर्थयात्रा अब पुराने ज़माने की अपेक्षा ज्य़ादा महत्वपूर्ण हो गई है। अगर हम लक्ष्य के रूप में इस तीर्थयात्रा को देखें, तो करने के लिए यह सबसे उत्‍तम चीज़ है।

ध्यान यात्रा के संबंधित विशेष जानकारी के लिए संपंर्क करें।

91 9488 111 777  info@ishakailash.com